अपने पापा को जब-जब मैंने जानने-पहचानने की कोशिश की, तब-तब उनसे खुद को और ज्यादा
दूर होते पाया। इतनी दूर, जहाँ तक कभी मेरी पहुँच नहीं रही। मैं जितना माँ के समीप था, उतना
ही अपने पिता से दूर। एक अभेद्य लकीर थी, जिसे हम दोनों ने कभी लाँघने की कोशिश नहीं
की। माँ आइस ब्रेकिंग का प्रयास करतीं, लेकिन न तो मेरी ओर से, न ही पापा की ओर से कभी
ऐसा उत्साह दिखा कि रिश्ते सहज आकार ले पाते और अनचाही दीवारें तोड़ी जा सकतीं।
मैं यह भी जानता था कि पापा मेरा बहुत ध्यान रखते थे। उन्होंने माँ को यह ताकीद दे रखी थी
कि वह मेरी हर जरूरत पूरी करें। कभी पैसों की कमी बीच में न आने पाए। मेरे शौक, मेरी
पसंद, मेरी हर जरूरत की चीज मेरे पास हो। रोज रात जब मैं सोने जाता तो कोई आहट आती।
दरवाजे की ओट से चुपचाप कोई झाँककर, देखकर वापस चला जाता। उस खामोश आहट को मैं
पहचानता था। वह चुप्पी मुझे कचोटती थी। मगर ठीक उसी के बाद माँ आतीं, अंदर आकर मेरी
रजाई ठीक करतीं, गुड नाइट कहतीं और फिर रात के आगोश में पूरा घर सो जाता। मेरी सारी
जरूरतें, खाने-पीने से लेकर भावनात्मक सपोर्ट तक, माँ से पूरी हो जाती थीं। शायद इसीलिए मैंने
इस कमी को महसूस करने के बावजूद कभी तवज्जो नहीं दी। वैसे भी अब मैं यूनिवर्सिटी जाने
लगा था। परिवार की डोर सँभालने के लिए माँ तो थीं ही।
अब, जब माँ चली गयीं तब मैं उस व्यक्ति के बारे में गहराई से सोचने के लिए मजबूर हुआ, जो
मेरे पिता थे। इस घर में उनके अलावा और कोई नहीं था जिससे मैं बात कर सकता। उन्होंने
मुझे अकेला छोड़ दिया था। मैं माँ को याद करता, आँसू बहते और आँखें मुँद जातीं। ऐसा लगता,
मानो माँ आएँगी, मेरी रजाई ठीक करेंगी और मैं सो जाऊँगा। पापा का घर में होना, न होना मेरे
लिए बराबर था। सीमेंट और रेत से बना घर एक ऐसा मकान बन गया था, जहाँ हँसी-किलकारी
तो दूर, शब्दों का सामान्य आदान-प्रदान तक नहीं था। मौत के साए में डूबा घर इतना खामोश
था कि साँय-साँय करती कमरों की सीमाएँ, बेवजह दरवाजों व खिड़कियों को भी हरकत में आने
से रोक देतीं।
मैंने माँ-पापा को बहस करते हुए ज़रूर देखा पर कभी लड़ते हुए नहीं देखा था। माँ मुझसे गाहे-
बगाहे ये जरूर कहती थीं- “तुम्हारे पापा को प्यार जताना नहीं आता।” मैं समझ नहीं पाता कि
मेरी उँगली पकड़कर चलाने वाला, मुझे कंधे पर बैठा कर घुमाने वाला इंसान, धीरे-धीरे मुझसे बात
करने से कतराने क्यों लगा! बात करते हुए भी हमेशा पापा का उपदेश देता लहजा मुझे उनकी
उपेक्षा करने पर मजबूर करता। हम दोनों के बीच का रिश्ता आहिस्ता-आहिस्ता मौन होते हुए
दरकता चला गया।
हालाँकि, पापा का साया माँ के बराबर ही मेरे सिर पर ताउम्र रहा। फर्क सिर्फ इतना था कि एक
दृश्य था, दूसरा अदृश्य। अब वह अदृश्य, अमूर्त मेरे सामने मूर्त होने लगा। मैं उस व्यक्तित्व को
समझने की कोशिश करने लगा जो मेरे लिए कर्कश और भावशून्य था। माँ एक सेतु थीं हमारे
बीच। वह सेतु टूटते ही रह गए हम दो प्राणी। अलग-अलग दिशाओं में पड़े दो इंसान, एक इस
किनारे, दूसरा उस किनारे।
उस दिन जब माँ ने अपनी अंतिम साँस ली, मैं फूट-फूट कर रो रहा था। आसपास वालों ने मुझे
ढाढस बँधाने की पूरी कोशिश की लेकिन उस वक्त पापा मेरे पास नहीं आए। वे एक गहरी
उच्छवास लेकर चले गए थे। उनकी आँखों से एक आँसू भी नहीं टपका था। इधर मेरे दु:ख का
पारावार न था। सच कहूँ, मैं भीतर ही भीतर बहुत क्रोधित था। गुस्से की आग में जल रहा था।
वे पल आज भी मुझे लगातार कचोटते हैं। सारा क्रिया-कर्म खामोशी से हुआ। मैं उन्हें उदास
देखना चाहता था। चाहता था कि यह इंसान झूठमूठ ही सही, कम से कम एक बार रोए। दो
आँसू तो मेरी माँ के सूखे कफन पर गिराए। पत्नी थीं उनकी, रात-दिन उनका इतना ध्यान रखती
थीं। माँ के लिए न रोए, न सही, कम से कम अकेले होने का दर्द तो छलकाए! उनकी गहन चुप्पी
के कई अर्थ लगा लिए थे मैंने। बुरे विचारों का ताँता लगता चला गया था।
हम दोनों के बीच पसरी खामोशी और गहरी होती जा रही थी। खाना-पीना सब इस तरह होता
जैसे दो मशीनें बगैर आवाज के घर में चल रही हों। समय के साथ मैंने समझौता कर लिया। माँ
की इच्छानुसार अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देने लगा।
यंत्रवत एक माह बीत चला था। आज ही के दिन माँ हमें छोड़ कर चली गयी थीं। माँ की याद
में दुखी, अलसायी सुबह शुरू ही हुई थी कि एक गंभीर आवाज सुनायी दी- “माँ की कब्र पर फूल
चढ़ाने तुम मेरे साथ चलोगे?”
“हाँ।”
'ना' नहीं कह पाया मैं। जाने को तो मैं अकेले भी जा सकता था। लेकिन माँ को दिखाने के लिए
पापा के साथ जाना था। पिता-पुत्र एक साथ जाएँ तो माँ को खुशी होगी। और आज जब माँ की
कब्र पर फूल चढ़ाते उन्हें देखा तो वे मुस्कुरा रहे थे। मैं क्षोभ से भर उठा। भीतर का गुबार फट
पड़ा- “पापा आप खुश हैं, माँ के जाने से!”
“हाँ बेटा, मैं बहुत खुश हूँ।”
मैं नफरत भरी निगाहों से उन्हें ताकने लगा। नथुने फूल आए, उनके कहे शब्दों पर मेरे शरीर का
हर अंग क्रोधाग्नि में जल रहा था। वे भाँप गए और बोले– “मैं इसलिए खुश हूँ क्योंकि मैं
तुम्हारी माँ को बहुत प्यार करता हूँ और यह बिल्कुल नहीं चाहता कि उसकी अनुपस्थिति का
जो दर्द मैं सहन कर रहा हूँ, ऐसा दर्द उसे सहन करना पड़ता।”
मैं एकटक पापा को घूरे जा रहा था जैसे किसी रहस्य से परदा उठ रहा हो। पापा के शब्द कानों
में पड़ रहे थे- “मैं उसे दुखी नहीं देख सकता था। मेरे जाने से वह रोती, मुझे बहुत दर्द होता।
कम से कम पहले चले जाने से वह इस दुःख से बच गई। उसकी इस खुशी में मैं शामिल होना
चाहता हूँ।” वे बोलते जा रहे थे और मेरे भीतर जमा पापा की पाषाण मूर्ति बर्फ की तरह
पिघलते हुए मेरे आँसुओं की धारा को तेज कर रही थी।
“तुम्हें पता है, तुम्हारी माँ के साथ मेरा लंबा सफर रहा। न जाने कितनी सुबहें हमने साथ-साथ
आँखें खोलीं, अनगिनत शामें टहलते हुए बिताईं। कभी जुगाली करके पीछे के बरसों में झाँकते,
कभी आगे की योजना बनाते हुए भविष्य की कल्पनाएँ सँजोते। इस लंबे साथ में हमने कई बार
घर बदले, देश बदले। जाने कितनी बार साथ-साथ पैकिंग और अनपैकिंग की। हर नए घर को
ऐसे सजाते रहे जैसे उस घरौंदे से हमारा ताउम्र का साथ हो। जब नए घर में जाते, उसे भी उसी
मनोयोग से सजाते, साथ ही पिछले को हमेशा याद करते। हर घरौंदे के साथ हमारे पड़ाव का एक
और नाम जुड़ जाता।
भारत से न्यूयॉर्क, और न्यूयॉर्क से टोरंटो की बदलती दुनिया, बदलते लोग भी हमें और हमारी
एक जैसी सोच को न बदल पाए। हम दोनों ठेठ झाबुआई रहे, तनिक भी नहीं बदले। हमारा रहन-
सहन जरूर बदल गया था। बरस दर बरस लड़ते-झगड़ते, प्यार करते, खाते-पीते, जीवन का लेखा-
जोखा दर्ज होता रहा कि किसने कितने समय काम किया, आराम किया। सारा फैला हुआ काम
बेच-बुचाकर बच्चे के लिए कम से कम झंझट रखने की योजना थी। बुढ़ापे के लिए चिंता की
जरूरत नहीं थी, सरकारी सुविधा थी। अगर कोई चीज खलती तो यही कि कौन पहले जाएगा, जो
रह जाएगा, उसके लिए अपने जीवन के बचे हुए दिन बिताना मुश्किल होगा।”
सहज और सरल स्वर में आज पापा बोल रहे थे, मैं सुन रहा था। किसी उपदेश से परे दो लोगों
की जीवन गाथा। मैं, पापा का बड़ा होता बेटा सोच रहा था इन सब में कहीं कामुकता या फिर
सिर्फ सेक्सुअल डिजायर की झलक तो नहीं दिखती। अगर कुछ दिख रहा है तो वह है– दो लोगों
का आपसी तालमेल, प्रतिबद्धता। यह एक तरह से दो लोगों की कंपनी थी। एक खानदानी
कार्पोरेशन की तरह, जिसका जीवन काल सतत आगे बढ़ता रहा। बीच में तीसरा कोई नहीं था।
परिवार और समाज उस बंधन में थे जरूर, पर उन दोनों के बीच कोई नहीं था।
पापा ने मेरी अनकही बात को समझ लिया– “एक महिला के साथ पचपन साल तक जीवन साझा
करना कैसा होता है, यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। शरीर की आवश्यकताएँ तो कुछ ही
पलों की होतीं मगर उसके अलावा हर दिन का, हर साल का ब्यौरा, कैसे कुछ ही शब्दों तक
सीमित हो सकता। बगैर खून के रिश्ते जैसे जुड़े हुए थे, उन हजारों पलों की गहराई समझने के
लिए हजारों ग्रंथ लग जाते।”
पापा दो पल के लिए रुक गए थे। रुककर अपने माथे पर उभर आयी कुछ बूँदों को समेटकर
कहने लगे- “तमाम संकटों में हम एक साथ रहे। मंदिरों में एक साथ प्रार्थनाएँ कीं, एक साथ एक
मेज पर अनगिनत बार खाना खाया, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर। वह मेरे हर काम में बराबरी की
सहायक थी, खुशियों में भी और दुखों में भी। यह मेरे लिए बड़ी राहत की बात थी कि मुझे
दफनाने की पीड़ा उसे सहन नहीं करनी पड़ी। मैं उसे अकेला न छोड़ पाता। अब, जब भी मैं
दुनिया से जाऊँगा, बगैर किसी चिंता के जाऊँगा। और तब उसके साथ बिताए, उसके बगैर बिताए
पलों की यादें मेरे साथ होंगी। कल, आज और कल के बारे में यह सोचना ही मेरे लिए बड़ा
सुकून भरा है। उसका जाना इसीलिए एक अच्छा दिन था। खुश हूँ, मैंने अपने हाथों से उसे
जन्नत तक पहुँचाया। उसके बगैर सिर्फ मैं ही अधूरा नहीं, इस घर की हर चीज अधूरी है। इस
अधूरेपन के साथ मैं जी लूँगा, शायद वह न जी पाती।” कहते हुए वे दो पल के लिए वहाँ बैठ
गए, उसी मुस्कान के साथ जो अपना वादा निभाते हुए किसी मासूम बच्चे के चेहरे पर होती!
मैं देख रहा था उस पति को, उसकी खुशी को, खुशी के पीछे छुपी गहरे दर्द की छाया को। उस
पिता को भी जो अधूरे अहसास के बावजूद एक सम्पूर्णता से भरा पूरा था। दर्द से उबरने के बाद
किसी मूर्ति की मानिन्द शांत। शायद पापा अपने मन की पीड़ाओं का उत्सर्जन करके मूर्त से
अमूर्त की तरफ़ प्रस्थान कर चुके थे। उनका यह मौन अब मेरे भीतर अनूदित हो चुका था।
पापा खड़े हो गए। उनके हाथ से फूल नीचे गिर गया। कब्र पर माँ का मुस्कुराता चेहरा उभर रहा
था। वही सेतु, दो किनारों की दूरी पाटने वाला। घर लौटते हुए मैंने पापा की उँगली पकड़ ली,
शायद उन्हें अब मेरे सहारे की जरूरत थी।
********
Dr. Hansa Deep
22 Farrell Avenue
North York, Toronto
ON – M2R1C8, Canada
001 647 213 1817
hansadeep8@gmail.com
********
संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी
कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास व छह कहानी
संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, पंजाबी एवं अंग्रेजी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद।
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।