कहानी समकालीनः आधी माँ, अधूरा कर्ज-डॉ. आरती लोकेश गोयल

आज सुबह अपनी हवेली से निकल छोटी माँ की हवेली में आई तो गहमा-गहमी मची हुई थी। दोनों हवेलियों के मध्य दालान वाला एक नाटा सा दरवाज़ा ही पार करना था जिसे पार करते ही आज नज़ारा कुछ बदला हुआ मिला।
बरामदे की अच्छी तरह धुलाई-पुछाई की गई थी। बाहर गार्डन और बरामदे की छोटी-सी बगिया के कुछ मृतप्राय-मुरझाए पौधों की जगह मौसमी फूलों वाले नए पौधों को दी गई थी। अनार, अमरूद, नीम, गुलमोहर के सूखे पत्तों को बटोरकर दोनों हवेलियों के मध्य, किनारे पर बने कम्पोस्ट पिट के हवाले कर दिया गया था, जो मैंने ही बनवाया था। बोटनी की प्राध्यापिका होने के नाते मैं पर्यावरण को लेकर सजग रहती थी। बगिया में नई बहार-सी खिल आई थी।
माली सेम की सूखी बेल को बाँस की खरपच्चियों के जाल से उतारने पर तुला था। वे अकड़े हुए मुड़े-तुड़े तने अपना स्थान छोड़ने को तैयार न थे। मैंने देखा कि अंगूर की नाज़ुक बेल सेम की सूखी-सख्त टहनियों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ रही थी अत: मैंने उसे सेम की बेल को उखाड़ने से रोक दिया। खीरा, ककड़ी, तुरई और टिंडे की बिखरी व उलझी बेलों को करीने से स्थान-स्थान पर बाँध कर सुंदर रूप दे दिया।
अंदर की रौनक भी चमक रही थी। हवेली के कोने-कोने में सजी हुई हर वस्तु को झाड़-पौंछकर पुन: व्यवस्थित किया गया था। बैठक सुगंधि से महक रही थी।
“रुद्रा! यह वही ‘बखूर’ बर्नर है न, जो रिधवान दुबई से लाया था?” मैंने बैठक में प्रवेश करते हुए छोटे भाई से पूछा।
“अरबी ‘ऊद’ भी दुबई की है जीजी! जो बर्नर में सुलग रही है। …रिधवान तो अब दुबई का ही हो गया है।”
रुद्रा के पहले वाक्य से दूसरे तक के सफ़र में चहकता स्वर निष्प्राण हो गया था।
“अरे! कोई ये मनीप्लांट के पीले पत्ते भी तोड़ दो।” छोटी माँ की आवाज़ उभरी।
वे हमेशा की तरह वहीं बैठी हुई थीं …उसी विशेष कुर्सी पर।
“शशि! मुझे पेशाब को तो ले चल ज़रा!” मुझे देखते ही वे बुड़बुड़ाईं।
अपनी रिटायरमेंट के बाद से मैं छोटी माँ के आस-पास बनी रहती थी। उनके अनकहे शब्द उनकी आँखों में झाँकना शुरु करते तो मैं हरकत में आ जाती थी। मैं समझ जाती थी कि उनके ब्लैडर की क्या स्थिति है। मैं कॉलेज की प्रिंसीपल रिटायर हुई थी। युवा छात्र-छात्राओं की आँखों से ही उनकी सभी करतूतें पढ़ लिया करती थी, अच्छी भी और बुरी भी। यही पढ़ाई, छोटी माँ को सँभालने में मेरे काम आ रही थी। मैं लपक कर उनके पास पहुँच गई।
“अरे मेरी बाँह तोड़ देगी री शशि!” वे कहती रह गईं और मैं ‘मत चूके चौहान’ का अनुसरण करते हुए उनकी बाँह पकड़कर उन्हें खींचती हुई दौड़ी। मधुमेह की रोगी, सतत्तर की काया, छोटा कद, दुर्बल तन; मैं उन्हें गोदी उठा के भी ले जा सकती थी। उनसे दुगुनी कद-काठी मेरी थी। वे परावलम्बी न महसूस करें, उनके मानसिक संतुलन के लिए लाभप्रद है।
आज घर में मची उथल-पुथल के चलते संभवत: उनके इशारे पर ध्यान देने से मैं चूक गई थी। उनके ये बोल सीधा खतरे के निशान से ऊपर बहती धारा के ही संकेत थे। बाथरूम से लौटकर छोटी माँ को उनकी कुर्सी पर बिठाते हुए मैंने कुशल दायित्व निर्वहन की एक लम्बी साँस छोड़ी।
जिस कुर्सी पर पिताजी बैठा करते थे, वह उनके जाने के बाद से खाली रहती थी। छोटी माँ उस पर किसी को न बैठने देती थीं। उसी कुर्सी पर रुद्रा की पत्नी भवानी आज सुनहरे किनारेवाली चम्पई रंग की धोती रख गई थी। मैं छोटी माँ को धोती में लपेटने लगी।
“शशि जीजी! आज छोटी माँ को डायपर पहना देना।” रुद्रप्रताप की पत्नी भवानी का निर्देश आया। मैं उनकी धोती के पल्लू को करीने से जमाने में लगी थी।
रुद्रप्रताप मुझसे 10 साल छोटा था। छोटी माँ उसे ‘बड़ा’ कहकर बुलाया करती थीं। ‘जा, बड़े को बुला ला’, ‘बड़ा यह काम कर देगा’, ‘बड़े से पूछ लो’ आदि-आदि। और ‘छोटा’ पुकारा जानेवाला भानुप्रताप मुझसे 15 साल छोटा था। अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का एक प्रोजैक्ट करने वह सिंगापोर की कम्पनी में इंटर्नशिप के लिए गया था। उसे कंपनी भा गई और बड़ी बात यह कि कंपनी को वह भा गया तो वह वहीं बस गया। अपनी मलेशियन पत्नी और दो बेटों के साथ उसने अपनी दुनिया वहीं बना ली है। सबकी अपनी-अपनी छोटी-सी दुनिया है। दुनिया अब छोटी भी तो हो गई है। पिछले साल छोटी माँ बीमार हुईं तो वह थाइलैंड के दौरे पर था। वहीं से फ़्लाइट लेकर अगले ही दिन आ पहुँचा। छोटी माँ की बुझी आँखों की चमक उसे देखकर लौट आई थी। शायद उनके मन में जीने की साध ‘छोटे’ को देखकर ही जागी थी। उसके दोनों बेटों की अपने हाथों से शादी करने का मोह उन्हें ऊर्जास्वित बनाए हुए था। ये दोनों पोते अभी स्कूल ही में थे।
“जीजी! डायपर निकाल लाता हूँ पैकेट में से। मीडियम साइज़ का ही आएगा न इन्हें?” रुद्रा जैसे जल्दी से जल्दी छोटी माँ को डायपर पहनवा देना चाहता था।
“अब इनका क्या साइज़ रुद्रा! आने को तो स्मॉल भी फिट आ जाएगा।” मैं उनके पैरों में चप्पल पहनाते हुए बोली।
“बात फ़िटिंग की नहीं जीजी! …लीकेज की है!” रुद्रा ने ऐसे नाक-भौं सिकोड़ीं जैसे कि लीकेज हो चुकी हो और वह दुर्गंध से मरा जा रहा हो।
पिछले साल की बीमारी के बाद छोटी माँ बहुत झटक गईं थीं। उनके डायपर का ही आकार घटकर लार्ज से मीडियम नहीं हुआ था, उनके रौबीले अस्तित्व का आकार भी सिमट गया था। उनके दिनभर बड़बड़ाने पर कई पहरे लग चुके थे।
मुझे रिटायर हुए पाँच साल हुए थे। कॉलेज की दो साल की एक्स्टेंशन की मनुहार को मैंने अस्वीकार कर दिया था। रुद्रा और भवानी मेरी रिटायरमेंट से अपनी आसानी की आस लगाए हुए थे। छोटी माँ जब किसी की भी नहीं सुनतीं, तब मेरी बात चुपचाप मान लेती थीं। तब ऐसे लगता था कि वे कोई छोटी बच्ची हैं, छोटी माँ नहीं। या यूँ कहूँ कि मैं जानती हूँ कि उन्हें कैसे किसी बात के लिए मनाना है। फिर भी उन्हें डायपर पहनाना तो एक युद्ध लड़ने जैसा ही था। वे पैरों की सेना को इतना अकड़ा लेती कि उन्हें डायपर के बीच से निकाल ले जाना किले में सेंध लगाने के बराबर ही होता।
“छोटी माँ! डायपर पहन लोगी?” उनकी अनुमति नहीं, आवश्यकता पर मेरा बल अधिक था। डायपर उन्हें दुश्मन दिखाई देता था। ज़ोर-जबरदस्ती से पहन लेतीं तो मौका देख बाथरूम में उतार फेंक आतीं।
“अरी! इत्ती-सी थी तू शशि! इत्ती-सी… जब तुझे मेरी गोद में डाला। तेरा नाम बड़ी माँ ने रखा था… मैं सूर्यबाला और तू शशिबाला! तू कोख में कब पड़ी पता नहीं चला। पर गोद पड़ी का खूब याद है मुझे। फिर तो एक के बाद एक कई बच्चे गिरे। कच्ची उम्र थी न! तब इत्ते साल बाद बड़ा पैदा हुआ।” छोटी माँ की अतीत की कैसेट एक बार चल पड़ती तो पूरी टेप खत्म होने पर ही रुकती थी। घर के बच्चे-बच्चे को ‘बच्चा गिरना’, ‘कोख पड़ना’ जैसे शब्दों का गूढ़ अर्थ पता हो गया था। अब तो शर्म भी आती थी इस किस्से को सुनकर। कभी अगर यह कोख पुराण किशोर होते मेरे पोते-पोतियों के सामने खुल जाता तो मैं उन्हें पढ़ने भेज दिया करती थी।
“हाँ छोटी माँ! मुझे पता है कि मैं कब पैदा हुई… रुद्रा कब हुआ और भानु कब! हम सबको सब मालूम है।… तुम डायपर पहनोगी? … पहनाऊँ डायपर? … पहन लोगी आज?” मैंने स्वर थोड़ा ऊँचा कर युद्ध से पहले साम-दाम-दंड-भेद के हथियार चलाने चाहे।
“अरी चिल्ला क्यों रही है? मैं कोई बहरी थोड़ा ही हूँ।” कहकर छोटी माँ ने नाराज़गी से मुँह परे फेर लिया।
“शशि जीजी! कामाख्याप्रसाद आ रहे हैं अरिहंत के रिश्ते की बात करने। … कहीं कोई तमाशा न हो जाए आज। ये मानेंगी भी नहीं। दूसरे कमरे में बैठेंगी भी नहीं। आपका यहाँ होना बहुत ज़रूरी है… नहीं तो, छोटी माँ को आप अपनी हवेली में ले जातीं।” रुद्रा की परेशानी पेशानी पर छलक रही थी।
पिताजी बहुत बड़े ज़मींदार थे। बड़ा रुतबा था उनका। भानु के जन्म के बाद से ही वे बीमार रहने लगे थे। सालभर में चल बसे। अट्ठावन के पिताजी के गुज़रते ही अट्ठाइस की छोटी माँ विधवा हो गईं। पिताजी अपनी सारी जायदाद छोटी माँ और मेरे नाम आधी-आधी कर गए थे। नानी, जिन्हें हम सब ‘बड़ी माँ’ कहते थे, उनका हाथ मेरे हाथ में देकर उन्होंने मुझसे उनका ख़्याल रखने का वचन भरवाया था। ‘बड़ी माँ’ एकमात्र ‘वस्तु’ थीं जो पिताजी को दहेज में मिली थी।
हम तीनों भाई-बहनों की पढ़ाई उनकी छोड़ी हुई ज़मीन जायदाद के कारण सुगमता से हुई। एक-दूसरे के साथ सटी हुई दो बड़ी हवेलियाँ, एक छोटी माँ के नाम और एक मेरे नाम कर दी गई। मैं दसवीं में पढ़ने वाली अपने मालिकाना हक से अनजान थी। ऐसे अनूठे बँटवारे पर न छोटी माँ ने आपत्ति की न बड़े होने पर रुद्रा-भानु ने ही सम्पत्ति का दावा ठोंका। वे चाहते तो अपना बराबर का हिस्सा माँगते और कोर्ट-कचहरी में मामला घसीटते। शायद मैं ऐसी नौबत आने से पहले ही कलह से बच, हवेली उनके सुपुर्द कर देती। मैंने इनपर ममता लुटाई तो इन्होंने भी हमेशा जीजी कहकर सम्मान दिया; ममता का मान रखा। कागज़ों पर बँटवारा दरो-दीवारों पर हावी नहीं हुआ।
मैं रुद्रा और भानु का ध्यान रखती और छोटी माँ ‘बड़ी माँ’ का। मैं बस उनके पास बैठकर बंगाल के अकाल की भीषण कहानी सुना करती थी। बारहवीं पास करते ही मैं दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में पढ़ने चली गई। वापस कोणेश्वर नगर प्राध्यापिका बनकर ही आई तो छोटी माँ ने मेरे नाम की हवेली की साफ-सफाई करवा, रहने के साधन जुटाए। कोचिंग कक्षाएँ लेने से मेरे पास बहुत से छात्रों व प्रोफ़ेसरों का आना-जाना लगा रहता था। फिर भी अपना कर्त्तव्य समझ मैंने बड़ी माँ को अपनी हवेली में रखना चाहा तो उन्होंने इंकार कर दिया। वे कहतीं कि बेटी के घर का अन्न ग्रहण नहीं कर सकतीं। मैं हँसती कि ये पाप तो आप छोटी माँ के घर में भी कर रही हैं। वे कहतीं कि सूर्या तो मेरे पिछले जन्म की माँ है। बात हँसी-हँसी में टल जाती। छोटी माँ उनकी सेवा जी-जान से करती रहीं। मैं अपने परिवार, कॉलेज की नौकरी और कोचिंग सैंटर पर ध्यान केंद्रित किए रही।
बड़ी माँ को गुजरे दस साल हो गए हैं। उनके जाने के बाद से छोटी माँ बीमार रहने लगीं जबकि उनके सामने तक खूब भली-चंगी थीं। वे तब से ही सफ़ेद धोती पहनने लगी हैं जो बड़ी माँ ने उन्हें नहीं पहनने दी थी। विधवा छोटी माँ सदा रंगीन कपड़ों में रहतीं। बिंदी, लिपस्टिक, चूड़ी-पाजेब-बिछुए आदि सब पहने रहीं। केवल सिंदूर ही उन्हें त्यागने दिया था।
“लो जीजी! पहनाओ छोटी माँ को डायपर।” रुद्रा की आवाज़ से जैसे मेरी तंद्रा टूटी। रुद्रा डायपर लिए सिर पर खड़ा था। मैं उन्हें और डायपर को लेकर बाथरूम की ओर चल दी।
“इत्ती-सी थी तू जब बड़ी माँ ने तुझे मेरी गोद में डाला, कि तुझे मैंने जन्म दिया है। … बता शशि! आज कैसी तो हालत हो गई है कि बेटी से गू-मूत करवाना पड़ रहा है।” छोटी माँ की आँखों की कोर गीली हो उठी थीं।
“तुम किसी सेविका को टिकने भी तो नहीं देती हो। वह दाई माँ विमला तो खूब अच्छी सेवा-टहल करती थी तुम्हारी। पर तुम्हें वह भी रास न आती थी। उसे भी तुमने गाली दे-देकर भगा दिया। वह लड़की सरिता तो तुम्हारी पसंद से ही रखी थी, तुमने उसे भी दुत्कार दिया।” मैं अपनी शिकायतों का पिटारा खोल बैठी।
सच में, छोटी माँ की सेवा की नीयत होते हुए भी चौबीसों घंटे उनकी परछाईं बने रहना बहुत असुविधाजनक तो था ही। ज़रा मेरी आँख लगती तो वे खुद ही धोती उठाकर चल पड़तीं और कहीं न कहीं ठोकर खाकर गिर पड़तीं और ठोडी, नाक, बाँह, घुटने पर नील उभर आते। एक आया को अगर वे सह लें तो मेरा जीवन भी कुछ आसान हो जाए। मेरा कोचिंग सैंटर भी मेरे दोनों बेटे और बहुएँ निभा रहे हैं। बोटनी की क्लास लेने के लिए मुझे ही जाना पड़ता है। और इतने में ही कुछ न कुछ कांड हो जाता है। रात को सराय की तरह सोने भर जाती हूँ अपनी हवेली में, वह भी छोटी माँ को सुलाने के बाद। कभी-कभी तो छोटी माँ बड़बड़ाती ही रहती हैं और सारी रात आँखों में काट देती हैं। उन्हें देख अपने आने वाले समय से डर लगता है। फिर मेरी तो कोई बेटी भी नहीं है।
छोटी माँ जो इतनी विनम्र, ममतामयी और दरियादिल मानी जाती रही हैं, मेरी रिटायरमेंट के बाद से बिलकुल अड़ियल टट्टू बन गई हैं। न रुद्रा के हाथ से कौर लेती हैं और न भवानी के हाथ से धोती, न किसी नौकरानी को नहलाने देती हैं। जब तक मैं उनकी हवेली में में न आ जाऊँ, वे हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। हरेक परिचारिका में कुछ न कुछ नुक्स निकाल देतीं हैं। घर के नौकर-चाकर भी उनके पास जाने से कतराते हैं और मेरा मुँह ताकते रहते हैं।
“अब निकाल तो नहीं दोगी इसे?” मैंने छोटी माँ से हामी भरवानी चाही कि वे मेहमानों के घर में बने रहने तक डायपर न निकालें।
“किसे? … कोई नई आया पकड़ ली है?” छोटी माँ बाथरूम के दरवाज़े से बाहर झाँकने लगीं।
“मेरी मजाल है कि कोई आया रख छोड़ूँ तुम्हें! …ये … डायपर का पूछ रही हूँ।” मैंने डायपर की इलास्टिक खींचकर हलके हाथ से छोड़ते हुए उनके बदन पर उसका अहसास करवाना चाहा।
“भाड़ में जाए ये डायपर-वायफर!” कहती हुई वे चौखट पकड़ बाहर को चलने को उद्यत हुईं। “बड़ी माँ को क्या डायपर पहनाते थे तुम लोग? … छियासी की गईं हैं वे, छियासी की। …समझी शशि!” छोटी माँ क्या बताना चाह रही थीं कि वे छियासी की भी पेशाब आदि को सँभाल सकती हैं या कि वे बड़ी माँ को बिना डायपर के सँभाल सकी थीं या फिर कुछ और ही; मैं मूढ़ समझ न सकी थी। उनको बहका हुआ मानकर मैंने जिरह नहीं की।
बड़ी माँ की उमर तो छोटी माँ को खूब याद थी। अपनी उमर के हिसाब में वे गड़बड़ा जाती थीं। कभी खुद को साठ का बतातीं, कभी सत्तर, कभी पैंसठ। मैं उनकी बात सुनकर बस मुस्करा देती। रुद्रा हँसता कि पैंसठ कि तो तुम भी हो जीजी! माँ-बेटी साथ-साथ पैदा हुईं थी क्या? हँसी का फव्वारा छूट पड़ता।
मैं मन में सोचती कि एक माँ का जन्म तो सच में अपनी औलाद के साथ ही होता है। उससे पहले तो वह एक गुड़िया होती है, बस! औरों के हाथ की कठपुतली।
“छोटी माँ!” मैं कुछ आगे बोलती कि छोटी माँ की टेप चालू हो गई- “अरे! इत्ती-सी थी तू, जब तू मेरी गोदी में डाली गई। नीम बेहोशी की तो उमर थी मेरी; और मैं माँ बन गई थी। … कोई डायपर-फायपर नहीं होते थे तब। खूब पोतड़े बदल-बदलकर पाली है मैंने तू।” हर बात के साथ यह कथा चिपक ही आती थी।
“छोटी माँ सुनो!” हम पुन: कमरे में दाखिल हो चुके थे। उन्हें सलीके से बिठाते हुए मैंने कहा, “मेहमान आ रहे हैं आज अरिहंत के रिश्ते के लिए। …तुम बड़बड़ चालू मत हो जाना। अपना टेपरिकॉर्डर तनिक बंद रखना।” मेहमानों के सामने क्या बोलना है क्या नहीं, छोटी माँ को सब सिखाने का जिम्मा मेरा ही था। जैसे उन्होंने मुझे सब सिखाया होगा जब वे मेरी माँ बनीं। उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि टेपरिकॉर्डर हम किसे कहते हैं।
“कौन आ रहा है बड़े? वह कामाख्याप्रसाद? छोरी स्वरांगी का बापू?” छोटी माँ ने प्रत्युत्तर के लिए रुद्रा की आँखों में झाँका। मैं हैरान थी कि एक बार बताया गया नाम छोटी माँ को तोते की तरह रट गया था। आज तो वे पूरी तरह जागरूक लग रही हैं… दिमाग की खिड़कियाँ खोलकर।
रुद्रा उदास और आतंकित हो उठा। नाखुश तो वह पहले ही से था कि अरिहंत ने शादी के नाम पर उसकी नाक में दम कर छोड़ा था। पहले तो वह शादी को राज़ी ही न होता था। वह पी.एच.डी. पूरी किए बिना विवाह की जिम्मेदारी उठाने को तैयार न होता था। 4-5 साल लगातार समझाते-बुझाते रहने पर भी जब वह नहीं माना तो उससे छोटे रिधवान के सिर पर सेहरा बाँध दिया गया। रिधवान के दुबई में बसने से घर में फिर बुढ़ापा छा गया।
रुद्रा ने, भवानी ने, छोटी माँ और यहाँ तक कि मैंने भी अरिहंत की शादी की उम्मीद ही छोड़ दी थी। इस बार उसने खुद लड़की पसंद की थी। लड़की तलाकशुदा थी। बस यही परेशानी रुद्रा को खाए जा रही थी। उसके अविवाहित बेटे की बहू एक तलाकशुदा? सारी कुँआरी कन्याएँ समाप्त हो गईं हैं क्या? किसी से भी कर लेता। उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश की न सही, बिहारिन, बंगालन, गुजरातन, मराठिन कोई भी ले आता, ईसाई, मुसलमानी, नायिन-धोबिन कहारिन कोई कर लेता, कुँवारी तो करता… ब्याहता ही मिली इसे… तलाकशुदा! पर पुत्र की हठ के आगे लाचार पिता को झुकना पड़ रहा था। उसके सिर पर सेहरा देखने का मोह काँटों की राह ले जाता था।
“अरी शशि! ये मनीप्लांट के पीले पत्ते नहीं हटवाएगी क्या? कब से कह रही हूँ… शुभ घड़ी में विघ्न पड़ता है।” छोटी माँ के याद दिलाते ही मैंने आया को पीले पत्ते छाँट कम्पोस्ट पिट को समर्पित करने का संकेत किया। ऐसे खाद बनाना मैंने ही माली को सिखाया था। काश! शुभ विचारों में अड़चन डालने वाली सोच को भी उखाड़कर उर्वरक बनाया जा सकता!
“हाँ छोटी माँ! वही… स्वरांगी…” वह जैसे भर आए गले में थूक सटकता हुआ बोला।
“बुला ला भीतर। द्वारे मोटर रुकी है उनकी।” छोटी माँ के कहने पर हम सबकी निगाहें फाटक के बाहर गईं तो देखा सचमुच वे लोग आ चुके थे।
अरिहंत को भी बैठक में आने की आवाज़ लगाई गई थी पर वह न दिखा। नौकर दौड़कर मेहमानों को अंदर लिवा लाए। कुल तीन मेहमान थे। रुद्रा ने स्वागत में हाथ जोड़े, बुझे मन को हथेलियों में दुबकाने का उपक्रम हुआ। एक कामाख्याप्रसाद स्वयं, एक उनका भाई और तीसरा व्यक्ति उनका जीजा या साला रहा होगा। चायपानी हुआ। रुद्रा ने मेरा परिचय कराया। तीनों ने बारी-बारी छोटी माँ के पैर छूए तो वे गदगद हो गईं और सब हिदायत भूल गईं।
“ये शशि देख रहे हो न! ये इत्ती-सी थी, जब मेरी गोद में आई। मरते-मरते बची। …” छोटी माँ का टेप चालू ही हुआ था कि मैंने उन्हें रोका।
“छोटी माँ…!” मैंने आवाज़ में तनिक रोष भरकर कहा और आँखें तरेरीं। हालाँकि आज टेप में कुछ नई धुन बज उठी थी। कुछ नए बोल जाने कैसे सुनाई आ रहे थे। आज ये कोई दूसरी टेप लगी थी छोटी माँ के कंठ में या अपनी बात सुनी जाने के लिए वे उसमें नए मसाले का बघार लगा रही थीं। एक नया प्रश्न मेरे मस्तिष्क को मथने लगा।
“छोटी माँ?” कामाख्याप्रसाद ने दोहराया और उत्तर की आशा में रुद्रा और मेरी ओर देखा। उन्हें यह संबोधन अटपटा-सा लगा।
“दरअसल दस वर्ष पूर्व तक मेरी नानी जीवित थीं। माँ उन्हें ‘बड़ी माँ’ कहती थीं। उन्हीं की देखादेखी हमसब भी अपनी नानी को बड़ी माँ कहते थे और माँ को छोटी माँ।” रुद्रा ने लपककर जवाब दिया। कहीं कामाख्या जी अपने ही मन की उलझन में बुने किसी अन्य निष्कर्ष पर न पहुँच जाएँ, तुरंत शंका का निवारण आवश्यक था।
“अरे वाह! बड़ा खुशकिस्मत है अरिहंत तो कि उसे अपनी दादी और परनानी का भी प्यार मिला है। और आपके पिताजी…?” खुशी ज़ाहिर करते-करते वे एक बार फिर खोजी निगाहों से तलाश करने लगे। पुत्री का पिता धीरे-धीरे एक जासूस में तब्दील हो चुका होता है। और एक बार दूध से जला हुआ पिता तो छाछ की पूरी छान-बीन करता है और फिर फूँक मारकर पीता है।
“जी, पिताजी तो बहुत पहले ही चले गए थे।” अबकी बार स्पष्टीकरण मैंने दिया था।
“मैं अट्ठाइस की थी, बड़ा पाँच-छ: बरस का… छोटा तो इत्ता-सा था। बड़ी माँ भी कोई सैंतालीस की रही होंगी जब शशि के पिता ने दम तोड़ा।” छोटी माँ ने झट से उम्रों का बहीखाता खोल के रख दिया। जाने क्यों न बताया कि पिता के प्राण त्यागते समय मैं कितने की थी। क्या इसमें छोटी माँ की कोई सूझ-बूझ है, लापरवाही है या बस ऐसे ही?
“पिताजी को हैजा हो गया था। उस उम्र में उनका शरीर कमज़ोरी झेल नहीं पाया। वे पचास से ऊपर के थे। हमारी माँ और पिताजी की उम्र में काफ़ी अंतर था।” रुद्रा ने नज़रें झुकाए जवाब दिया। पिताजी माँ से तीस साल बड़े थे, इस बेमेल विवाह पर उसे शर्मिंदगी होती थी।
मेहमानों की आँखें और अचरज से फैल गईं। मैंने बात सँभालनी चाही।
“मैं आपको बताती हूँ… हमारी नानी जो थीं वे बंगाल की थीं। बंगाल में अकाल के समय हमारे नानाजी और कई बड़ी मौसियाँ मारी गईं यानी छोटी माँ की तीन बड़ी बहनें। बड़ी माँ ने छोटी माँ के साथ किसी तरह दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। यहाँ पिताजी दो पत्नियों को एक-एक कर खो चुके थे। संयोग से पिताजी के घर में उन्हें पनाह और सम्मान मिला।” उनकी महानता सिद्ध कर मेरा स्वर गर्वीला हो चला था।
“ओह! तब तो आपके पिताजी को बड़ी माँ से विवाह कर लेना चाहिए था।” कामाख्याप्रसाद ऐसे यकायक बोल उठे जैसे सारी दलीलें सुन चुकने के पश्चात किसी केस का फैसला सुना रहे हों।
“बड़ी माँ से कैसे करते? वह तो विधवा थीं।” रुद्रा तपाक से बोला और सब सन्न रह गए। सबके मुँह पर ताले जड़ गए। कुछ देर सब जड़वत बैठे रहे।
कामाख्याप्रसाद जी का साहस ही न हुआ कि वे रिश्ते की बात कर सकें। मेरे मन में भी स्वरांगी को लेकर हज़ार प्रश्न अनसुलझे ही रह गए।
“जी अब आज्ञा दीजिए।” कामाख्याप्रसाद हिम्मत कर के खड़े हो गए और हाथ जोड़ते हुए बोले। इस क्षण ऐसा वातावरण बन गया था कि आगे कुछ कहना-सुनना बेमानी हो गया था। तीनों मेहमान सिर झुकाए निकल गए।
उनके चले जाने के बाद भी हवेली में साँप सूँघने जैसा महौल बना रहा। कामाख्याप्रसाद का वाक्य हमें अंदर तक छील गया था। बड़ी माँ मुझे बताया करती थीं कि बंगाल में वे अपने पति की दूसरी दुलहन बनकर गईं थीं। पहली पत्नी की चार बेटियाँ थीं किंतु बेटा नहीं होता था। बड़ी माँ भी दस साल में बेटा न दे पाईं थीं। उन पर बाँझ होने का ठप्पा लग गया था। पूरा गाँव अकाल की चपेट में आ गया। जब घर में केवल ये दो प्राणी ही जीवित बचे तो वे अपनी जान बचाने को वहाँ से निकल भागीं किंतु सौतेली बेटी को वहाँ छोड़ते मन न माना और उसे भी साथ ले आईं।
फ़्राक पहने ग्यारह साल की बच्ची की बजाए इकत्तीस साल की युवती एक सक्षम पुरुष को अधिक मोहित करेगी। बहुत संभव है कि पिताजी युवा स्त्री से विवाह के इच्छुक हों किंतु परिजनों ने विधवा की बेटी से विवाह करवाकर आश्रयदाता का धर्म निभाने दिया हो। इकतालीस वार्षीय पिताजी विवाह के कुछ माह बाद ही कोणेश्वर की हवेलियाँ बंद कर श्यामली रहने चले गए जहाँ मैं पैदा हुई थी। जमी-जमाई ज़मींदारी छोड़कर श्यामली में चार साल बिताने कोई क्यों जाएगा भला?
क्या बारह बरस की बच्ची भी माँ बन सकती है? हर पिता पहले एक पुरुष होता है। प्रथम दृष्टि का प्रेम अनानुबंध बिनगठबंधन जब निर्बाध बहा होगा तो परिणति मेरी उत्पत्ति में हुई होगी। दुनिया की नज़रों में वे विधवा थीं तो सधवा बस उनकी नादान बेटी ही थी। उसका शरीर भले ही माँ बनने के उपयुक्त नहीं था किंतु ओहदा …माँ बनने के अधिकार से युक्त था। जी कड़ा कर कदाचित अपनी संतान को अपनी सौतेली बेटी की गोद में उसकी बताकर डाला होगा। युवा हुई छोटी माँ ने जब पत्नी धर्म निभाया तो भाइयों का जन्म हुआ। मेरे और रुद्रप्रताप की आयु में इतने अंतर भी है।
इस नाते से मैं छोटी माँ की सौतेली बहन हुई और रुद्रा की मौसी। या फिर पिता के रिश्ते से देखो तो छोटी माँ की सौतेली बेटी और रुद्रा की सौतेली बहन। अपने प्रेम और परिवार दोनों को चुपचाप निभा गए वे… संपत्ति के बँटवारे में भी और उत्तरदायित्व के बँटवारे में भी।
तो क्या मैं छोटी माँ के स्नेह की नहीं, घृणा की अधिकारिणी हूँ? मैं उनकी बेटी ही नहीं हूँ। तभी तो बड़ा और छोटा, ये ही दोनों हैं उनके। वरना मेरे होते बड़ा बड़ा कैसे हो गया? …नहीं-नहीं! ऐसा नहीं हैं। प्रेम तो वे मुझसे ही सबसे अधिक करती हैं। मैं उनकी आधी बेटी हूँ और वे मेरी पूरी माँ! अपने वात्सलय से मुझे सींचती छोटी माँ! …अपनी सौतेली माँ की बेटी और अपनी सौतेली बेटी से प्रेम… क्या कर सकता है कोई? क्या इतनी महान हैं छोटी माँ? …या यह सब मेरी मनगढ़ंत कहानियाँ हैं। कहीं कुछ सच्चाई भी है इसमें? बड़ी माँ तो बाँझ थीं बाँझ। उन्होंने स्वयं मुझे बताया था।
बाहर गिलहरियों की आवाजाही की आहट हुई, उनमें छीना-झपटी शुरु हुई तो ध्यान बाहर गया। सुबह अंगूर की जो बेल सेम की सूखी पतली डंडी पर चढ़ने को आतुर थी अब तक उसने सूखी बेल पर अपना पूरा अधिकार जमाकर उसकी शुष्कता को छिपा लिया था और उसे अपने हरे रंग का कम्बल देकर रँग दिया था। गिलहरियाँ उसी पर फुदक रही थीं।
“छोटी माँ! यह मरते-मरते बचने वाली बात कब की है?” मैंने सहसा प्रश्न कर डाला। चुप्पी तोड़ने वाली मैं ही थी। मेरे मन की ऊहा-पोह में यह एक पहेली धड़कन को रोकने पर अड़ी थी।
“सुन बड़े! मैं कहे देती हूँ… तू लिख के रख ले… उस छोरी स्वरांगी का कोई बालक भी होगा। जो तुम लोगों को बाद में पता चलेगा।” छोटी माँ ने ताल ठोंक के कहा और ठसके से सिर हिलाया।
यह छोटी माँ किस आधार पर कह रही हैं? ऐसी तो कोई बात सामने नहीं आई। न ही कामाख्याप्रसाद के मुँह से कुछ ऐसा निकला। मैंने और रुद्रा ने एक-दूसरे को चौंककर देखा। कि यह खुलासा कब हुआ?
“ऐसा नहीं हो सकता छोटी माँ! वे लोग हमसे छुपा लेंगे क्या इतनी बड़ी बात?” रुद्रा जैसे फट पड़ा था क्षुब्धता से। पहले ही आघात कम था उसके हृदय को कि एक और संशय का घात आ खड़ा हुआ।
“तू मत मान… पर गाँठ बाँध के रख ले… गलत साबित हो तो फिर कहियो। … अरिहंत से पूछ देख। उसे सब पता होगा।” छोटी माँ के दिमाग की ताकत और याददाश्त आज दस साल पहले जैसी हो उठी थी। शायद उम्र संबंधी परेशानियों को पीछे धकेलकर अपने पोते की शादी की लालसा ने दिमाग की शक्ति बढ़ा दी थी।
“हम नहीं करेंगे ऐसे झूठों के घर में रिश्ता फिर। … तुम हाँ कर दोगी छोटी माँ ऐसी लड़की को? तुम हाँ करती हो जीजी?” रुद्रा ने रौद्र मुखमुद्रा से मुझे देखा।
“हाँ बड़े! मैं करती हूँ हाँ! कलेजा चाहिए कलेजा, …पराई जाई को अपनाने के लिए।” छोटी माँ बोलीं।
“छोटी माँ?” मैं भी आश्चर्य से लगभग चीख पड़ी। यह अनजानी स्वरांगी से हमदर्दी थी? आजकल तो छोटी माँ नीम चढ़ा करेला हो चुकी हैं। अकारण यह उदारता? मन ने धीरे से अपने कपाट खोले। पिताजी द्वारा की गई अनीति को वह नीति बदलकर सुधारना चाहती हैं शायद। मुझे अपनी उथली सोच पर ग्लानि-सी हो आई।
“रुद्रा! बात कुँआरी और ब्याहता की नहीं है, …तलाकशुदा की भी नहीं है; …बात है प्रेम की। जो जिससे प्रेम करता है, उसे वैसा ही स्वीकारने का दम रखना चाहिए। हमें इन दोनों की खुशी का रोड़ा नहीं बनना चाहिए।” दिमाग की जगह दिल से निष्पक्ष काम लिया था मैंने। अवचेतन में अपनी कल्पना के घोड़े भी जागकर हिनहिना रहे थे।
“हाँ है! उसकी एक बेटी भी है एक साल की।” तभी अरिहंत का स्वर सुनाई दिया। वह कब घर में घुसा और कब से सारा वार्तालाप सुन रहा था किसी को पता न चला। हम कुछ सोच पाते, इससे पहले ही यह धमाका भी हो ही गया। “…मैंने स्वरांगी को वचन दिया है कि मैं शादी उसी से करूँगा। उसकी बेटी को कानूनन गोद लूँगा। ये रिश्ते के चोंचले और पत्री दिखाने का नाटक बंद कीजिए आप लोग। हम दोनों ने कोर्ट मैरिज के लिए अर्जी लगाने का फैसला किया है।” उसने दो टूक सुना दिया।
फिर वह छोटी माँ के गले लगते हुए उनके पासवाली कुर्सी पर बैठ गया। छोटी माँ ने उसकी पीठ थपथपाई। वह उठने लगा तो एक झुर्रीदार हाथ ने उसे पुन: उस कुर्सी पर बिठा दिया। उस कुर्सी की पिताजी से बेहतर एक आदर्श पुरुष की तलाश अब पूरी हो गई थी।
“सुन शशि! तू इत्ती-सी थी। मरते-मरते बची थी। बची थी बड़ी माँ के दूध से। मैं तो बच्ची-सी थी। मेरे शरीर में तो जान नहीं थी। ऊपर से अकाल का मारा बदन। बड़ी माँ का कर्ज़ है, उन्होंने तुझे दूध पिलाया।” वे अरिहंत का हाथ पकड़े-पकड़े ही बोलीं। आज छोटी माँ की घिसी-पिटी टेप वाकई में बदली गई थी। मैं हतप्रभ रह गई। मुझे अपनी कल्पनात्मक कहानी का आधार स्तम्भ मिल गया था।
“बड़ी माँ तो बाँझ थीं। दूध कैसे उतरता था फिर?” उनके दिमाग के बहकने का अंदेशा अभी खत्म न हुआ था हालाँकि पिछली कुछ घटनाएँ चीख-चीखकर उसके दुरुस्त होने की गवाही दे रही थीं।
“अरी शशि! ये कहाँ सुन लिया तूने? उनके गर्भ ठहरते ही गिर जाता था। 6-6 बच्चे गिरे उनके। दूध तो कच्चे गर्भ में भी उतर आता है।” छोटी माँ का स्वर दृढ़ हो गया, आँखें चमक उठीं जैसे किसी रहस्योद्घाटन के समय मनुष्य पलकें नहीं झपकाता, आँखों में आँखें डालकर बात करता है, वे भी कर रही थीं।
“बड़ी माँ ने खुद… … … ।” मैं ने अरिहंत की तरफ देखा। स्वर लड़खड़ा गए। रुद्रा भी आँखें फाड़े खड़ा था।
“अरी पगली! एक ऐब सारे ऐब ढक देता है। …चल अब मुझे पेशाबघर ले चल।” वे ऐसे बोलीं कि कुछ हुआ ही न हो। यहाँ मेरी दुनिया सिरे से उलट चुकी थी। मेरा परिचय ही पलट चुका था। मेरा सिर चकरा रहा था।
“तुमने डायपर पहन रखा है छोटी माँ!” स्वयं को किसी तरह संयत कर मैं चलने को उद्यत हुई तो याद आया।
“आँख मूँदकर, जान-बूझकर गंदगी कर दूँ क्या? नासमझ थी तब और बात थी।” वे कहाँ से कहाँ बात बोल रही थीं।
“अरी! …ले के चल मुझे। तेरा पिंड थोड़े ही छोडूँगी मैं।” मुझे झिंझोड़ते हुए वे बोलीं- “क्या सोच रही है कि छोटी माँ मरे तो पीछा छूटे। तेरी बड़ी माँ की सेवा की है मैंने …चालीस साल। उन्होंने मुझ बेसहारा पर ममता का जो कर्ज़ चढ़ाया, उतार दिया मैंने।” उन्होंने लापरवाही से हाथ नचाया।
“…” मैं अवाक खड़ी रह गई। एक हाथ से छोटी माँ को थामे मैं रुद्रा के गले से लिपट गई। रुद्रा ने अरिहंत की बाँह पकड़ उसे भी कलेजे से चिपटा लिया।
“तू इत्ती-सी थी जब बड़ी माँ ने तुझे मेरी गोद में डाला। बड़ी माँ तो बाँझ थीं न!” उनकी जिह्वा पर फिर पुरानी टेप चल पड़ी जैसे।
“हाँ माँ! मैं इत्ती-सी… तेरी वही इत्ती-सी बेटी हूँ। तेरी ममता का कर्ज़ मैं इत्ता-सा ही उतार पाऊँगी। तू वसूलना मुझसे हर जन्म में … अधूरा कर्ज़!” मेरी आँखों से आँसू झर उठे।
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डॉ. आरती ‘लोकेश’
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