कहानी समकालीनः आखेट-शैल अग्रवाल

नदी वह चंचला थी और पूरे उफान पर भी, परन्तु दाहिनी तरफ पसरा पड़ा जंगल पूर्णतः सुनसान और शान्त ही था। पर उस कलकल निनाद और पूर्ण सन्नाटे के विरोधाभास ने वातावरण में एक रोंगटे खड़े करने वाला रोमांच भर दिया था, मानो। बीच-बीच में हमें चिड़ियों के पंखों की फड़फड़ाहट और झींगुर आदि का शोर सुनाई दे जाता था, विशेषतः तब जब हमारे जूते सूखी चरमराती पत्तियों पर अधिक शोर करने लगते थे।

वह दृश्य पूर्णतः मोह रहा था हमें। भोर की किरन जब-जब फूलों का घूंघट उठाती तो रूप से और भी दपदप करने लग जाता था वह वीराना, मानो जमीन पर नहीं, किसी परीलोक में विचर रहे हों हम ; एक स्वप्न सा ही तो था सब कुछ वहाँ पर!

चलते-चलते कई ऐसी जगहें भी दिखीं , जहाँ जमीन को भरी दोपहरी में भी रौशनी का एक कतरा तक नहीं छू पाता था। ऐसा घुप अंधेरा, मानो अचानक ही किसी ठंडे और सूखे कुँए में पहुँच गए हों हम। जगह-जगह उंचे-ऊंचे पेड़ों ने छतरी-सी तान रखी थीं। कैसे भी टोहते-टटोलते ही वहाँ से बाहर निकल पाए थे हम, जंगली उन बेलों के जाल को इधर-उधर हाथ फेंक-फेंककर अंदाज से ही हटाते-बढ़ाते हुए। एकाध कांटा भी चुभा था। फिर भी उत्साह बना रहा था हमारे सैलानी हाथ-पैरों में।

नौकरी का पहला दिन था वह ।…कहते हैं न कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है। फिर जगह से भी तो वाकिफ होना ही था।

इलाके के इन्सान ही नहीं, जानवरों तक की रखवाली की जिम्मेदारी अब हमारी और हमारी टीम की ही तो थी।

जीप आधी मील दूर, जंगल के उस पार ही छोड़ दी गई थी और पैदल-पैदल ही नदी तक पहुँचे थे हम । अब हमारी विस्मित आँखों के आगे नदी पहाड़ और पेड़ -प्रकृति की छटा का मनभावन त्रिकोणी संगम फैला हुआ था। और तब सामने बहती उस नदी के संग-संग जंगल घूमने का मन बना यारों का और जितना व जब तक संभव हुआ घूमे भी थे उस दिन हम। नदी के बहते पानी में अपनी परछांइयाँ ढूँढते और चुनते, तो कभी ऐसे ही किसी जंगली फूल को सूंघते-सहलाते, पक्षियों को निहारते घंटों निकाल दिए थे हमने । नदी भी तो अठखेलियाँ ले रही थी हमारे साथ। हिलती लहरें तरह-तरह की आकृतियाँ बनातीं और बिगाड़ भी देतीं तुरंत ही। कई बार तो उन ऊंचे देवदार और चिनार के पेड़ों को भी अपने चेहरों के संग-संग पानी में बहते और लहरों के संग टेढ़े-मेढ़े होते देखकर एक रोचक मुस्कान तैर गई थी हमारे होठों पर भी।

मन में एक रोमांच-सा जगाती, सुनसान और सभ्यता से कितनी दूर थी पर वह जगह। देवभूमि कहे जाने वाले इस हिमालय के जंगलों का रहस्य जान पाना वैसे भी इतना सहज तो नहीं। फिर वह दिन ही कैसे अपवाद होता ! नहीं जानते थे हम कि रुद्र कब अपने रुद्र-तम रूप को लेकर प्रकट हो जाएँगे? मौसम का सही अनुमान आसान नहीं होता इन जगहों पर। परन्तु उस वक्त तो सब कुछ शिव और सुंदर ही दिख और प्रतीत हो रहा था । एक से बढ़कर एक दृश्य थे , बादल पानी और जमीन तीनों के उस अप्रतिम मेल और खेल में। सारे बादल मानो एकसाथ नदी में उतर आए थे और लहरों पर बहते हमारे संग-संग ही चल रहे थे । और उस खिली-खिली धूप मे बहादुर, हमारा गाइड सदा ही हमसे चार कदम आगे-आगे।

उसके थमे और धीमे शब्द धीरे धीरे मुंह से निकलते और फिर जंगल के उस एकांत में हवा संग बह-से जाते। संगीत से गूंजते और गोल-गोल घूमने लग जाते उसकी बीड़ी के धुँए के छल्लों पर बेफिक्री से सवार हो-होकर।

पर वह खुद इतना बेफिक्र नहीं दिख रहा था उस शांत वातावरण में भी।

बेहद सतर्क और चौकन्नी थीं उसकी गोल-गोल चमकती आँखें।

उसकी हर बात मानते, हम भी बहुत ध्यान से सुन और देख रहे थे उसे ।

अब बहादुर अलखनंदा कैसे गंगा में पलटी , का वर्णन सुना रहा था और वर्णन था भी बेहद रोचक । जलमग्न काले चिकने वे गोल पत्थर, जिन्हें वह स्वयंभू शालिग्राम कहकर बार बार हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहा था, वाकई में रहस्यमय थे और नदी के सौंदर्य को दुगना कर रहे थे। झाग फेंकती लहरें भी उन्हें ऐसे छू-छूकर निकल जाती थीं, मानो साक्षात रुद्राभिषेक की पूजा चल रही हो वहाँ पर।

अब हम कभी वर्णित एक-एक दृश्य का आनंद लेते तो कभी तस्बीरें खींचने लग जाते। जो न खींच पाते उन्हें यादों के एलबम में संजोने लग जाते। कभी-कभी तो बस यूँ ही उस अलसाई दोपहरी में किसी पटिया, किसी शिला पर बैठकर सुस्ताने भी लग जाते थे। परन्तु ऐसा तभी होता जब हम बहुत थक चुके होते थे। कई बार तो थकान के मारे चलते-चलते ही झपकी तक आ जाती थी और तब कुछ देर आराम करना बेहद जरूरी हो जाता था सभी के लिए।

नाश्ता भरपेट खाया था सुबह चलने से पहले, तो खाने-पीने का सारा सामान गाड़ी में ही छुड़वा दिया था बहादुर ने। उसका कहना था कि इन जगहों पर जितने हलके और सतर्क रहो, उतना ही बेहतर है-कौन जाने खतरा कब किस दिशा से धावा बोल दे। उसकी तो बस एक ही रट थी- ‘शाब जी, आज ही देख लो, जितना देख सको। रोज-रोज आना नहीं हो पाएगा यहाँ पर और रात को रुकना भी ठीक नहीं इन सुनसान जगहों पर।’

‘क्यों?’- सवाल पूछने की हिम्मत नहीं थी किसी की भी- कुछ ऐसे विशेष अंदाज में और जोर देकर सावधान करता चल रहा था बहादुर हमें।

कंजी आँखों वाले उस पहाड़ी के चेहरे पर कुछ ऐसी गंभीरता और बेचैनी थी कि बिना किसी सवाल-जवाब के हम उसकी हर बात मान रहे थे और उसका हर वाक्य बृह्म-वाक्य ही था मेरे लिए तो कम-से-कम।

वह जंगल के बारे में सब कुछ जानता था और मैं कुछ भी नहीं। वह वहीं का रहने वाला था और मैं कल ही इलाहाबाद से पहली बार इस क्षेत्र में आया था।

अचानक ही बहादुर पलटा और बोला- ‘जल्दी ही रात हो जाएगी। अंधेरा पहाड़ों पर अचानक और एक संग ही कब्जा करता है। अब हमें लौट चलना चाहिए।’

‘इतनी जल्दी ? अभी कुछ विशेष तो देखा ही नहीं हमने पर!’

विचार मन में आया अवश्य परन्तु चुपचाप ही मुड़ लिए हम तीनों उसके कहने पर और नदी के उद्गम तक जाने की अपनी इच्छा और जिद सब छोड़ दी हमने।

अब वापस जीप की ओर लौट रहे थे हम। पर वापस जीप तक पहुँच पायें, उसके पहले वह कम-से-कम ढाई तीन मील का लम्बा जंगल का रास्ता तय करना शेष था अभी, वह भी अंधेरा ढलने और शाम होने से पहले।

चलते-चलते दस-पंद्रह मिनट ही हुए होंगे कि यकायक बदली सी छा गई और अगले पल ही घुप अंधेरा भी हो गया। ऐसा अंधेरा जिसमे हाथ को हाथ तक नहीं सूझता। फिर भी हम देखने और देख पाने की कोशिश करते रहे। बिना टौर्च जलाए ही आगे बढ़ते गए। बहादुर ने भी समझाया- यही ज्यादा सही है। अब हमारी रफ्तार खुद-ब-खुद ही तेज होने लगी थी। करीब-करीब दौड़ने से लगे थे हम। हम तीनों ही डरे और चुप थे- एक बेचैनी भरी डराती चुप्पी थी वह।

पर किससे और क्यों डर रहे थे हम- हममें से कोई नहीं जानता था!

एकाध चिड़िया के अलावा अब कुछ दिखाई या सुनाई नहीं दे रहा था और शायद कुछ और था भी नहीं वहाँ पर । फिर भी एक अज्ञात आशंका असहज करने लगी थी हमें और कुछ-कुछ अंदाजा भी था कि कैसे-कैसे खूंखार जानवर रात में शिकार पर निकलते हैं इन सुनसान जंगलों में।

…हमारी चुप्पी शायद उसने सुन ली थी-

‘यह जंगल है, शाबजी। यहाँ चीजें दिखने से पहले महसूस होने लग जाती हैं। ऐसे ही आता है अंधेरा इन घने जंगलों में, अचानक ही, एक शिकारी की तरह, चौकस और पूरी तैयारी के साथ अपना पूरा जाल फैलाता हुआ। ‘

अचानक ही निकले बहादुर के इस वाक्य ने हमारी बेचैनी कुछ और बढ़ा दी-कैसा शिकार और किसका शिकार!

अब बहादुर नीचे-ऊपर ही नहीं, चारो तरफ ही अपनी पैनी आँखों से नजर रख रहा था और उसके मुंह से हिस-हिस की आवाज के साथ निकले हर ‘स’ की जगह ‘श’ की ध्वनि का भी मैं अभ्यस्त हो चला था। हाँ, बीच-बीच में आई इसकी वह सांस की लम्बी और अटकी सुड़क जरूर हमारे बढते पैरों को रोक देती थी और तब हम सब उस अंधेरे में भी सतर्क होकर इधर-उधर देखने लग जाते थे।

अब सिवाय हमारे पैरों की उस खिसर-खिसर और सूखे पत्तों की चर्र-मर्र के कुछ और कहने सुनने की मानो न तो जरूरत ही रह गई थी और ना तो समय ही था । एक आतंक-सा फैल चुका था उसकी बातों का हमारे इर्द-गिर्द।

पर धीरे-धीरे वह पहाड़ी थकने लगा था और थोड़ी देर पहले ही बहुत अच्छे लगते उसके वे ऊलजलूल किस्सों का खजाना भी । अब उनकी जगह उसकी खोजी आँखों में एक चीते जैसी चौकस चमक आ गई थी और कांख में धंसी खुरपी को सहलाने भी लगा था वह रह-रहकर, जैसे कि एक जानवर शिकार से पहले अपनी बेचैनी में छलांग लगाने से पहले ऊँचाई पर खड़े होकर नाखूनों से जमीन को खरोचने लग जाते हैं बार-बार और बेमतलब ही।

उसके बिना कुछ कहे-सुने ही हम समझ गए थे कि सावधानी और गति दोनों ही जरूरी हो चली थीं अब हमारे लिए। किसी भी पल खतरनाक हो सकता था वह शांत दिखता, टिप-टिप करता और यदा-कदा की धीमी आवाजों से गूंजता-महकता जंगल। रात में यूँ टहलने के लिए तो हरगिज ही सुरक्षित जगह नहीं थी। भय मानो अब एक चीते सा ही पीछा कर रहा था हमारा । चीता का तो नाम ही डरा देता है- कैसे आ सकता है चीता यहाँ पर , पर? यह जगह तो इनसानों की बस्ती से बेहद नजदीक है! बुद्धि ने तुरंत दलीलें देनी शुरु कर दी थीं ।

अभी मैं खुद को तटस्थ कर ही रहा था कि अचानक बहादुर पलटा और बोला- ‘चीते का शिकार किया है कभी आपने बाबूजी?’

चौंककर मैंने भी पलटकर उससे पूछा, ‘ चीता और यहाँ पर, क्यों डराते हो बेवजह ही बहादुर हमें!‘

टौर्च से उसके चेहरे पर रौशनी मारते हुए मैंने आधी डरी और आधी कौतुक भरी नजर से एक बार फिर उसका सिर से पैर तक निरीक्षण किया और पूरी बात की सच्चाई व गहराई भरपूर जाननी चाही। परन्तु उसकी आँखें तो अब उन सरसर करते पेड़ों के बीच फिरसे जाने क्या-क्या और कुछ और ही ढूंढने लगी थीं- ‘ हाँ बाबूजी, यहाँ चमोली और बागेश्वरी के बीच अक्सर ही दिख जाता है चीता…खास करके ऐसी खामोश और ठंडी रात में। फिर अगर भूखा हो तो…‘

‘ भूखा हो तो क्या…?’

मैं करीब-करीब फुसफुसी-सी आवाज में भी चीखता-सा बोला था तब।

हमारी घिग्घी बंधी जा रही थी। मेरी तेज आवाज सुनकर उसने तुरंत ही मुंह पर उंगली रखकर मुझे खामोश कर दिया। अर्दली कामथ जो अभी तक पीछे-पीछे भरी हुई राइफल लेकर चुपचाप चल रहा था अब सतर्कता के साथ आगे बढ़कर बहादुर के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने लगा था।

बहादुर के चेहरे पर अब वही पहली वाली रहस्यमय मुस्कान वापस आ चुकी थी और उसकी बातें हमारी रीढ़ में सुरसुरी पैदा कर रही थीं।

‘कुछ नहीं। बस अपने पेट भरने लायक इन्तजाम तो कर ही लेते हैं ये जानवर भी, शाब जी।‘

बात वह हमसे कर रहा था परन्तु उसकी आँखें अभी भी घुमावदार सड़कों से हट कर पडाड़ों पर छाए अंधेरे पेड़ों के झुरमुटों पर ही टंगी हुई थीं।

पर वहाँ ऐसा कुछ भी तो नहीं दिख रहा था जिससे डरा जाए, पांव फिर भी अब कांपने लगे थे हमारे और बेवजह ही एक दौड़-सी में थे हम सभी। कैसे भी, जल्द-से-जल्द जीप तक पहुंचना ही था अब तो हमें। कुछ दिख नहीं रहा था और ना ही ऐसी कोई संभावना ही समझ में आ रही थी फिर भी डर के उस अहसास ने हमारे टेंटुए भींच दिए थे। अंधेरा मानो अब एक खूंखार जानवर में पलट चुका था और पल में ही हमें पूरी तरह से पछाड़ने की तैयारी में हमारे पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

सामने पहाड़ी के ऊपर बने इक्के-दुक्के घरों की रौशनी की धीमी लकीर बीच-बीच में थोड़ी बहुत राहत और राह अएश्य दिखा देती थी, पास ही इन्सानों की बस्ती होने का अहसास भी दे देती थी। बस, इससे ज्यादा और कोई मदद नहीं थी हमारे पास उस वक़्त। न करे भगवान कुछ उलटा-सीधा हो, किसी मदद की उम्मीद व्यर्थ ही थी उन दूर पहाड़ी की चोटी पर बसे घरों से। हम सभी मन-ही-मन प्रार्थना में थे अब।

‘ बस्ती के इतने पास तो नहीं ही आता होगा चीता?’ अपनी तसल्ली के लिए फिर भी एक निरर्थक-सा सवाल पूछ ही लिया था मैंने।

‘ क्यों नहीं ? भूख बड़ी जालिम चीज है शाब जी , सब करवा देती है। और फिर वह पहाड़ी के ऊपर वाली बस्ती इतनी पास भी कहाँ है! ’

वह अभी भी धीमी और फुसफुसी आवाज में ही बोले जा रहा था और मुंह पर उंगली भी रख रखी थी अब तो उसने, मानो हमें फालतू की बातें न करने को कहना चाहता हो।

हमारी भयभीत चेतना अब पूर्णतः सुन्न हो चुकी थी और तुरंत सुरक्षा चाहती थी ।

हड़बड़ी में सामने पड़े पत्थर से पैर टकराया तो गिरते-गिरते ही बचा मैं।

‘संभाल कर बाबूजी। मैं हूं न इस सबसे निपटने को। आप तो बस अपने को संभाले रहो। ज्यादातर तो जैसे आता है वैसे ही चला भी जाता है अगर भूखा न हो तो, या फिर आदमखोर न हो तो।‘

बहादुर के मुख से बार-बार निकला यह ‘भूखा’ शब्द हमारी भूख भी जगा रहा था और भय भी । यदि हम भूखे हैं तो चीता भी तो भूखा हो ही सकता है…सकता क्या, निश्चय ही होगा ही।

अब आप सोच रहे होंगे- ये हम कौन? तो जनाब मैं यानी विपिन नागपाल इस एरिया में आया नया-नया फौरेस्ट औफिसर और मेरा अर्दली कामथ और गाइड व फौरेस्ट-रेंजर तेज जंग बहादुर।

इस एरिया से वाकिफ़ नहीं हूँ मैं और इस जंगल में भी पहला दिन ही है मेरा और इस नौकरी का भी। सच कहूँ तो इस असहनीय भय का भी। अपने इलाहाबाद में तो मैने सघन वन के नाम पर बस आम और अमरूद के बगीचे ही देखे हैं। ऐसे बीहड़ में विचरना और डरना… थोड़ा-बहुत तो आप भी अंदाज लगा ही सकते हो मेरी इस अजीबो-गरीब मनःस्थिति का।

अभी मैं खुद को संभाल ही रहा था कि अचानक ही बिजली की तेजी से लपकता वह जाने कहाँ से आया और ठीक हमारे सामने आकर खड़ा हो गया।

हरी घूरती आँखों पर जब टौर्च की रौशनी पड़ी तो दुगनी तेजी से कौंधीं थी उसकी बिल्लौरी आँखें। भूख की ज्वाला थी बस वहाँ पर, भय नहीं और हम तीनों जड़ हो चुके थे अबतक भय से। पूरा मुंह खोलकर दहाड़ा भी वह तब -ऐसी दहाड़ जिसने मेरी तो पैंट ही गीली कर दी।

अचानक कई चिड़िया फड़फड़ाकर चीत्कार -सा करतीं उड़ गईं आसपास के पेड़ों पर से।

अभी-अभी जो सोया-सोया-सा लग रहा था, मानो वह पूरा जंगल ही जग चुका था अब उसकी एक ही गर्जना से।

अभी उस किंकर्तव्य विमूढ़ अवस्था में पल भी नहीं बीता होगा कि सामने कि झाड़ी में हलचल हुई और एक खरगोश तेजी से फुदका।

इसी को तलाशता ही शायद वह यहाँ हम तक आ पहुँचा था।

पर तभी बजाय उसकी तरफ लपकने के वह तेजी से हमारी ओर झपटा।

हमारी आदम-गंध उस तक पहुंच चुकी थी शायद। पर इसके पहले कि हममे से किसी को एक खरोंच तक लगे , अर्दली कामथ की बंदूक चल पड़ी। और निशाना भी सही जगह पर ही लगा था।

अब वह चीता तन से और मैं मन से पूर्णतः आहत था- ‘क्या यह जरूरी था?’

दो ही गोलियों में चीता सामने जमीन पर पड़ा तड़प रहा था। उठने की कोशिश की तो तीसरी गोली ने पूरी तरह से शांत कर दिया उसके अधमरे शरीर को। ज्यादा बड़ा नहीं था, बच्चा ही-सा दिख रहा था खून में लथपथ ज़मीन पर पड़ा वह ।

‘ढूंढती शेरनी कभी भी आ सकती है।‘

अचानक बहादुर चीते की ही फुर्ती से पलटा और चीते-सा ही दहाड़ा।

हमारे सामने पक्षियों का झुंड चीत्कार करता अभी भी उड़ रहा था।

बहादुर की आंखें अब हर दिशा से सतर्क थीं। फिर तो एक दो तीन- तीन और गोलियों और अन्य पेड़ों से भी उड़ते और चीत्कार करते पक्षियों की आवाजें सुनी मैंने।

बहादुर ने तुरंत ही गजब की फुर्ती दिखाई और अपनी खुकरी के साथ शिकार को संभालने लग गया था- ‘माँ कबसे काली पूजा के लिए सिंह छाल का बिछावन चाह रही थीं। आज देवी मां ने उनकी यह इच्छा भी पूरी कर ही दी। ‘

बिजली की सी तेजी से कमर की रस्सी खोलकर चारो पैरों से बांधकर चीते को कंधे पर टांग लिया था उसने अब।

पर जाने क्यों, उसकी आवाज की वह कांपती खुशी मुझे छू नहीं पा रही थी ।

मैं वाक़ई में उदास हो चला था -नहीं जानता था कि हम में से कौन अधिक हिसक और खूंखार है – हम इन्सान या फिर जंगली जानवर ! चीता, जो अभी बच्चा ही था, पूरा बड़ा होने का मौका तक नहीं दिया हमने तो इसे।

सबकुछ बेहद असहज हो चला था और असह्य भी मेरे लिए अब।

शायद पहले कभी देखा जो नहीं था इस बहादुरी से चीते का सामना होते , शिकार होते, फिर यूँ ढोकर आलू के बोरे की तरह कंधे पर उसे जाते हुए, वह भी पैदल-पैदल ही। रात के घुप अंधेरे में,घने जंगल के बीच से।

सच में असहज हो चला था मैं।

‘हम इनसान और जानवरों में से कौन अधिक हिंसक है? कौन प्रायः किसका शिकार करता है!’

ये सवाल अब चीते से भी विकराल रूप लेकर मेरे सामने खड़े थे। चीता तो भूख में आखेट पर निकला था और हम?…न सोच रुक रही थी और ना ही खुद को निर्दोष साबित करती दलीले ही।

मैं तो एक हरे भरे सुहाने जंगल की महक और सपना लेकर आया था इस नौकरी में। जंगल के इस खूंखार और अंधेरे पक्ष की तो जानकारी ही नहीं थी मुझे। हो सकता है वह हमारी तरफ देखता ही नहीं। खरगोश या हिरन से ही काम चल जाता उसका…आदत कैसे पड़ेगी पर मुझे इस सबकी?

जितना सोचता उतना ही उलझन में पड़ता जा रहा था।

बहादुर मुझे धकेलता-सा रास्ते भर चीखता रहा- ‘रुकें नहीं। रुकने का समय नहीं। चलते रहो शाबजी । खतरा अभी टला नहीं है।‘

आगे-आगे राइफल के संग चलता सतर्क कामथ मुड़-मुड़कर इधर-उधर और आगे पीछे देख लेता था कि सब ठीक तो है। जैसे-तैसे जीप में बैठे ही थे कि बहादुर फिर से चालू हो गया- ‘यह तो जंगल है शाबजी । यहाँ जो ज्यादा ताकतवर हो, वही दूसरे का शिकार कर लेता है। जो चूका, गया काम से। सामनेवाला तुरंत ही चीरकर धर देता है, गिरे पड़े को । मरो, या मारो- यही कानून है जंगल का और यहाँ के जीवन का भी।‘

बात तो सही थी पर मान नहीं पा रहा था मन। वन और जीव संरक्षण का संकल्प लेकर आया था मैं यहाँ पर और आज नौकरी के पहले दिन ही यह सब…आधी सुनी और अनसुनी वे बातें और एक खून बहता मरा चीता साथ में …मुड़कर देखा तो कार में सीट बेल्ट लगाए बैठा वह चीता मानो मुझे ही घूर रहा था, और उसका खुला मुख भी कुछ इस अंदाज में टेढ़ा था मानो हंस रहा हो हमारे ऊपर-‘ कायर कहीं के! मुझे मारना कौन-सा कठिन काम था। रोज ही होते रहते हैं ऐसे नृशंस आखेट अबोध और कमजोरों के।

देखना यह है कि तुम कब अपने से अधिक ताकतवर से टकराते हो!’

मन वाकई में खिन्न था। मोहभंग हो चुका था मेरा। शिकार या हिसा के तो वैसे भी कभी पक्ष में नहीं रहा मैं। पैर खुद ही एक्सिलेटर पर और अधिक दबाव देने लग गए और खड़ -खड़ करती जीप भी सर्पीले पहाड़ी रास्ते पर दुगनी रफ्तार से तेज दौड़ने लगी थी, मानो अब हमें ही नहीं , इसे भी शिविर तक पहुँचने की एक बेसब्र जल्दी थी ।…

शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com

सर्वाधिकार सुरक्षित
copyright @ www.lekhni.net

error: Content is protected !!