रमणीक, मनोहर और रोमांच से भरपूर सफ़र तय कर नेहा विद्यालय प्रांगण में प्रविष्ट हुई। प्रथम नियुक्ति के कागजात तैयार करते हुए उसे बेहद ख़ुशी हो रही थी। रोहन से दूर होने का गम दिल में था परन्तु यह गम नौकरी के रोमांच के नीचे दब गया था।
विद्यालय का माहौल खुशनुमा कहा जा सकता है। समस्त स्टाफ का रवैया सकारात्मक लगा नेहा को। उसे पहले ही दिन अपनत्व मिला, महसूस ही नहीं हुआ कि वह यहाँ नई अध्यापिका है।
विद्यालय की ईमारत भी भव्य थी। कम जनसंख्या वाले इस इलाके में विद्यालय भवन के लिए भरपूर जगह उपलब्ध थी। कक्षा-कक्ष के आलावा प्रत्येक विभाग के लिए अलग स्टाफ रूम की व्यवस्था थी। प्ले ग्राउंड से लेकर प्रार्थना सभा कक्ष तक सभी सुविधाओं से संपन्न विद्यालय नेहा को अजूबे जैसा लगा। उसने किसी सरकारी विद्यालय में इतनी सुविधाएं नहीं देखी थी।
नेहा ने उत्सुकतावश पूरे विद्यालय का निरीक्षण किया व कम्पूटर कक्ष, जंतु विज्ञान कक्ष, पादप विज्ञान कक्ष, रसायन शास्त्र कक्ष के साथ-साथ कला-कक्ष एवं क्राफ्ट-कक्ष की भव्यता देख वह दंग रह गयी। दिल्ली महानगर में भी उसने ऐसी साज-सज्जा से परिपूर्ण विद्यालय नहीं देखे थे।
नेहा ने निर्णय लिया कि यहाँ वह मन लगाकर पढ़ाएगी। अचानक उसे रोहन की याद आई। उसे लगा– कैसे रह पायेगा रोहन उसके बिना, अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर वह अकेला दिल्ली में, कितनी दूरी है दोनों के दरम्यान। सुहागरात की सेज और रात्रि के अन्तरंग पलों को याद कर उसके शरीर में सिहरन होने लगी और वह यादों में खोती चली गई।
नेहा की नियुक्ति रसायनशास्त्र-प्रवक्ता के रूप में हुई थी। नेहा का विषय कुछ ऐसा रहा जो अंग्रेजी माध्यम की डिमांड करता है। हालाकि नेहा की पढाई अंग्रेजी माध्यम में ही हुई थी। रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर कर उसने बी.एड. किया था जो उसकी नौकरी का आधार बना।
नेहा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी लेकिन पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में मिजो का बोलबाला है। दुकानदार हिन्दी नहीं जानते। एक ही देश के लोग अलग जगह जाकर अजनबी हो जाते हैं। नेहा बाजार जाती तो पाती कि लोग अंग्रेजी नहीं जानते। लिंक-लैंग्वेज के अभाव में वह न ठीक से खरीदारी कर पाती और न ही कोई मोलभाव ही। एक बारगी उसे जिन्दगी डिफीकल्ट महसूस होती।
पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दी का चलन न के बराबर देख उसे हैरानी भी होती। एक अच्छी बात अवश्य थी कि अधिकांश साथी अध्यापक हिन्दी भाषी क्षेत्रों से थे और हिन्दी बोलते समझते थे।
बेशक रसायनशास्त्र की शिक्षिका अंग्रेजी माध्यम में पढ़ी थी लेकिन उसे हिन्दी से भी बेहद लगाव था। वह हिन्दी को एक समृद्ध भाषा के रूप में देखती है। हिन्दी साहित्य तो मानो उसके रोम-रोम में भरा है। प्रसाद, निराला, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सरीखे कवियों को वह कालजयी मानती है। वह कहती है- कविता में आधुनिकता सृजनात्मक सच्चाई का दूसरा नाम है। शमशेर ने इस सच्चाई को खूब निभाया है।
विद्यालय परिसर में ही नेहा को एक फ्लैट मिल गया और साथ ही मिल गया, एक ऐसा अध्यापक जो हिन्दी का प्रवक्ता है। साहित्य पढाना उसका पेशा मात्र नहीं वरन वह साहित्य में जीता भी है। साहित्यप्रेमी दोस्त का मिलना उसे ‘सोने पे सुहागा’ लगा। उसे महसूस होने लगा –विज्ञान और साहित्य का अनोखा मिलन कुछ नया सृजन करना चाहता है। सुदीप श्रृंगार रस का कवि जो हर क्षण को श्रृंगारमय बना जीने का आदी है, उसे बहुत ही प्यारा लगा। उसका हर तर्क, वाक्पटुता, मधुर मुस्कान, बात-बात पर ठहाके लगाना नेहा के अंतर्मन को उद्वेलित कर देता, परन्तु रोहन का चेहरा उसे अक्सर आगे बढ़ने से रोक देता। पर यह बहुत लम्बे समय तक हो न सका।
उमंगो ने अपना काम किया, साहित्य ने अपना। साथ बैठकर हुई चर्चाओं ने उनके मन में न जाने कब प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित किया, दोनों में से किसी को भी पता न चला। यह किशोरावस्था से जवानी की दहलीज की तरफ बढती उत्तेजना की मानिंद बढ़ता प्रेम पादप था।
सुदीप की सोहबत ने सोने में सुगंध का काम किया। अल्प समय में प्रेम की पींगे बढ़ने लगी। साहित्यप्रेमी नेहा सुदीप के सानिध्य में चर्चित लेखिका के रूप में जानी जाने लगी।
वर्ष भर में ही नेहा की कवितायेँ, लेख और कहानियाँ देश की नामीगिरामी पत्रिकाओं में छपने लगे। उसका पहला काव्य संकलन ”प्रेमानुभूति” प्रकाशित हुआ। लोकटाक की ‘हिन्दी उन्मूलन समिति’ ने एक भव्य समारोह का आयोजन कर इस काव्यकृति का विमोचन किया।
नेहा ने इस कार्यक्रम में रोहन को भी बुलाया था रोहन ने देखा कि नेहा सुदीप में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रही है, लेकिन वह बोला कुछ भी नहीं, शक और संशय का बीजारोपण तो हो चुका था और यह सब निराधार भी नहीं था लेकिन नेहा इन सबसे बेखबर, प्रेम के हाथों विवश। रोहन दिल में दर्द लिए, एक ठंडी आह भर दिल्ली लौट आया।
नीला आकाश… कंपकपाती, कराहती हवा। सुदीप अपने हाथों में ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास लिए नेहा का इंतज़ार कर रहा है। नीले लिफाफे में लिपटा उपन्यास लिए वह प्रतीक्षारत है। उसे प्रतिक्षा करना अच्छा लग रहा है। धीरे-धीरे समय सरक रहा है। वह कभी ठहरने लगता है, कभी पेड़ पर कन्धा टिकाये खड़ा हो जाता है। उसके बाल हवा में लहरा रहे हैं; तभी नेहा आती दिखाई देती है, वह उसके पास चली आई है बिलकुल पास। उसने हल्का सा मेकअप किया हुआ है। माथे पर छोटी सी लाल बिंदी, होंठो पर हल्की सी लिपस्टिक व आँखों में काजल की डोर, बस…।
“तुम कब आये सुदीप?”-नेहा ने पूछा था।
“छ साल पहले।“-सुदीप ने नपा-तुला जबाब दिया।
“अरे, मेरा पूछने का ये मतलब नहीं था। अभी, यानी आज कब आये?”
“बस यूं समझ लो डेढ़ घंटे से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।“
“लेकिन मैं तो देर से नहीं आई, जो समय तय हुआ था, उसी समय मैं पहुँच गयी थी।“
हाँ, तुम तो समय पर ही आई हो लेकिन मुझे यूँ प्रकृति की गोद में बैठना, घूमना अच्छा लगता है। इस बहाने प्रकृति से रूबरू होने का मौका ही मिल जाता है।“
“अच्छा चलो, वहाँ दूर घाटी के बीच चलकर बैठते हैं।“ -कहकर नेहा मानो दुर्गम पहाड़ी पर दौड़ पड़ी।
घाटी में जा धीरे से चलते हुए सुदीप ने नेहा का हाथ पकड़ लिया। अपनी मनपसंद जगह बैठ दोनों आलिंगनबद्ध हैं।
नेहा ने कहा- “सुदीप, तुम मुझसे रोज मिलते हो, विद्यालय में भी और शाम में फिर से, बातें भी खूब करते हो पर मैं तुमसे और बात करने को बेचैन रहती हूँ; ऐसा क्यों होता है?”
“मैं क्या जानूं?”
“बताओ न सुदीप, क्यों मन तुमसे मिलने को, तुमसे बातें करने को व्याकुल हो उठता है? क्यों मैं तुम्हारी यादों में खोई रहती हूँ?”
बाते करते करते सुदीप ने बताया कि वह दो हफ्ते के लिए बनारस जा रहा है, किसी संगोष्ठी में शिरकत करने के लिए। दो हफ्ते दूर रहने की बात सुन नेहा बेचैन हो उठी।
दोनों मिलते-जुलते हैं, साथ घूमते हैं लेकिन दोनों ने अभी तक अपने प्रेम का इजहार नहीं किया। आलिंग्न, चुम्बन सब मूक है।
सुदीप और नेहा दोनों ने ही एक-दूसरे को अपनी पिछली जिन्दगी के बारे में बता रखा है। दोनों शादीशुदा होकर प्रेम कर रहे हैं। नेहा को सुदीप का एक पल के लिए उससे अलग होना गवारा नहीं है। वह कह उठती है- “मेरी रूह कांप उठती है जब तुम मुझसे दूर चले जाते हो। मैं तुमसे बाते करना चाहती हूँ। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ, पर शब्द मुझ तक पहुँच ही नहीं पाते। बड़ी याचना भरी दृष्टि से मैं तुम्हारे पास होने की कल्पना करने लगती हूँ। मुझे लगता है जैसे मैं तुमसे कह रही हूँ कि तुम कह क्यों नहीं देते हो कि तुम मुझसे बेइंतहा मोहब्बत करते हो, तुम उससे तलाक लेकर मुझे अपनाना चाहते हो, कह दो सुदीप, कह दो… यह सब सुनने के लिए मैं व्याकुल हो उठी हूँ। मेरा मन व्यग्र है। मेरे दिल में वेदना जन्म ले रही है, मेरे विचार डगमगा रहे हैं। तुमसे दूर होने की तड़प मैं सह न पाऊँगी। बस एक बार… सिर्फ एक बार कह दो कि तुम मुझे अपना लोगे। देखो… सुदीप… मैं सब कुछ छोड़ सकती हूँ… सब कुछ… मेरे पास जो कुछ भी था मैंने सब कुछ दे दिया… अपना मन, रूह और शरीर… हाँ, शरीर तक तुम्हें अर्पित कर दिया सुदीप… इतना सब कुछ हो जाने के बाद मैं तुमसे दूर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकती। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। शायद अब तक नहीं करती थी… तुम्हें ऊँचाईयां चढ़ने का रास्ता जरुर बनाया था लेकिन… आज तुमसे सचमुच प्यार हो गया… हाँ, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।“
यह सब कह नेहा को लगा कि एक बोझ उसके हृदय से हट गया। एक लम्बा नि:श्वास दोनों के बीच उपस्थित हो जाता है। सुदीप उसे कसकर आलिंगनबद्ध कर लेता है। श्वांस एक-दूसरे से टकराती है। गर्माहट एक-दूसरे को उद्वेलित करती है।
नेहा के इस इजहार पर सुदीप खुश है लेकिन रोहन की आशंका उसे निरंतर परेशान करती है।
नेहा ने कहा- “तुम रोहन को लेकर सदैव संदिग्ध रहते हो, क्या तुम उससे ईर्ष्या करते हो?
“नहीं, नेहा ईर्ष्या नहीं परन्तु वह तुम्हारा पति है और उसका तुम पर कानूनी हक़ है। क्या तुम्हारे मन में एक द्वंद्व नहीं होता होगा? क्या मुझे और रोहन को लेकर तुम्हारा ह्रदय तुलना नहीं करता होगा? क्या तुम उससे दूर होकर मेरे साथ जीवन गुजरने की इच्छा को सहज ले पाओगी? नेहा, मेरे मन में एक ज्वार उठता है… भविष्य की आशंकाओं का ज्वार।“
नेहा ने कहा था– “सुदीप! यहाँ आने तक मैं समझती थी कि मुझे उससे प्यार है पर प्यार के क्षण, एक-दूसरे पर न्योछावर होने के पल जहाँ हर इच्छा, हर कामना बौनी हो जाए हमारे बीच आये ही नहीं।“
नेहा एक पल रूकती है, सुदीप के बालों को सहलाती है फिर बोलती है– “सुदीप, ये सच है कि मैं एक शादीशुदा औरत हूँ, लेकिन रोहन के साथ मैं कितने दिन रही, उसे कितना जाना? शायद उस वक़्त तक हमारे बीच प्रेम पनपा ही नहीं। इससे पहले कि मेरे हाथों की मेहँदी का रंग उतरता और हम एक-दूसरे को जान पाते या यूँ कहूँ कि प्रेम अपना रंग चढ़ाता उससे पहले ही मेरा नियुक्ति पत्र आ गया। अगर मैंने किसी को जाना तो वो तुम हो…। सुदीप, जरा सोचो कि यदि रोहन के लिए मेरे मन में कोमल स्थान होता तो क्या मैं तुम्हारे आगे… तुम्हारी हर उचित-अनुचित चेष्टा के आगे…. तुम्हारे हर आग्रह के आगे यों आत्मसमर्पण करती? तुम्हारे चुम्बन और आलिंगन में तुम्हारा साथ देती? तुम्हारे आगोश में यूँ बिखर जाती? जानते हो विवाह के बाद लड़की अपने पति के अलावा किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती। पर मैंने दिया, क्यों? क्या हम सिर्फ इसलिए आगे नहीं बढ़ गए कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ। क्या तुम किसी शादीशुदा स्त्री के संसर्ग में रात गुजार सकते हो? नहीं सुदीप… नहीं… अगर तुम मुझसे प्यार नहीं करते तो यूँ अनगिनत चुम्बन की बारिश न कर पाते…, तब तो तुम मुझे छूने की हिम्मत भी न कर पाते। विश्वास करो सुदीप… एक स्त्री के सत को भंग नहीं किया जा सकता… अगर उसका मन इसके लिए गवाही न दे…। मैंने मन से तुम्हें अपनाया है, तुम्हें चाहा है, विश्वास करो सुदीप हमारा प्यार ही सच है। रोहन तो एक बीता हुआ कल है, भ्रम है, झूठ है।“
नेहा ने सुदीप को बताया कि गर्मी की छुट्टियों में उसे दिल्ली जाना पड़ेगा। दो महीने की लम्बी छुट्टी में लोकटाक रहने का कोई बहाना वह ढूंढ नहीं सकती। वह जानती है कि सुदीप उसे मन से जाने की इजाजत नहीं देगा। रोहन से मिलकर उसके हृदय-परिवर्तन की आशंका से सुदीप का मन बैठ सा गया है। सुदीप का मन हुआ कि वह उसे वह सब कुछ कह दे जो अभी उसके मन में चल रहा है। जो उसे एक हफ्ते से बेचैन कर रहा है। वह रात में सोने से पहले, संभवतः सोने के बाद भी सोचता है।
उसने कहा- “नेहा, जो हमेशा होता है, वह हमारा अपना होता है, उन्हें याद रखने की जरुरत भी हम नहीं समझते, लेकिन कुछ चीजें दूर जाकर ज्यादा कीमती हो जाती हैं, कई बार वे चीजें हमेशा के लिए खो जाती हैं, रिश्ते भी कुछ इस तरह होते हैं, दिल्ली जाकर खो तो न जायोगी या फिर वे सब भुला तो न दोगी जो यहाँ संजो कर रखा है।“
नेहा ने सुदीप को आश्वस्त किया कि उसे भूलना या मेरा बदल जाना इस जन्म में तो संभव नहीं।
छुट्टी हुई तो सुदीप नेहा को गुवाहाटी तक ट्रेन में बैठाने गया। यादों में खोई नेहा एक बार फिर दिल्ली अपने पति रोहन के पास थी।
लोकटाक में गुजरी सुहानी संध्याओं और चांदनी रातों के चित्र नेहा की आँखों में उभर आते। जब वह सुदीप के साथ घाटी के बीच मौनभाव से उसे निहारती थी। बिना स्पर्श भी कैसे सुदीप ने उसके तन-मन में सिहरन भर दी थी। कैसी मादकता ने उसके तन-मन को महका दिया था। जैसे कैसी तन्मयता में डूब गयी थी नेहा उस पल…। एक विचित्र सी स्वप्निल दुनिया से बाहर आने की उसकी इच्छा ही नहीं हुई। वह कुछ बोलने के लिए होंठ खोलती सुदीप अपनी अंगुली के पोर होंठो पर रख कहता– ‘नेहा, उन क्षणों को यूँ ही रहने दो नि:शब्द। इन अनकहे क्षणों की आत्मीयता को जब कभी याद करोगी तो मेरी यादों की अतल गहराई में खो जाया करोगी, उस वक़्त जब हम साथ नहीं रहेंगे। इस पल उस पल इन विचित्र पलो को याद करना, तब इस पल की भावनाओं को खोजना।‘
रोहन के स्पर्श ने उसकी स्मृतियों के चलचित्र में आकर झिंझोड़ा तो उसे आभास हुआ रोहन के आगमन का। वह चेतना में लौट आई। रोहन उसका संसर्ग चाहता था। वह उसे रतिक्रिया के लिए तैयार होने का आग्रह कर रहा था। उसके मन में प्रचण्ड तूफ़ान। निर्विकार भाव से वह रोहन के सम्मुख बैठी, इतना समीप होकर भी उसने स्वयं को रोहन से दूर पाया। रोहन उसके समीप उसकी गोद में लेट गया, इंच भर की भी दूरी नहीं। उसे लगा –‘क्यों रोहन उसकी गोद में लेटा है, क्यों उसका हाथ पकड रहा है? क्यों कंधे को धकेल उसे अपने ऊपर गिरा देना चाहता है? क्यों रोहन के चुम्बन पर वह प्रति-चुम्बन नहीं कर पा रही? आज उसे रोहन का छूना क्यों इतना बुरा लग रहा है?’
नेहा सोना चाहती है। सुदीप के सपनों में खोना चाहती है। पर रोहन है कि बार-बार एक ही आग्रह किये जा रहा है। उसका मन कहता है कि रोहन को वह सही स्वीकृति दे दे लेकिन सुदीप की छाया उसकी आँखों में तैर रही है।
वह स्वयं को झंझावत में फंसा पाती है। अपनी मज़बूरी पर खीझ उठती है। उसका मन किया कि वह रोहन को सच्चाई बता दे पर जाने क्यों वह कुछ भी बोल पाने की स्थिति में स्वयं को महसूस नहीं करती, एक भय सुदीप को खोने का भय उसकी आँखों में सदा घूमता है। उस भय से वह प्रतिपल भयभीत रहती है। उसका मन करता है वह जोर-जोर से रोये, चिल्लाये पर आवाज़ जैसे गले में दबकर रह जाती है। वह सिर्फ इतना ही कह पाती है-“रोहन, मैं ऋतुमती हूँ।“
अगले दिन शाम को रोहन उसे इण्डियागेट ले जाता है। कृत्रिम झील के पास दोनों बैठते हैं। घास गीली है, इण्डियागेट पर भीड़ बहुत है। काफी चहल पहल है, परन्तु जहाँ दोनों बैठे हैं वह स्थान कुछ शांत है।
एक चहल-पहल जहाँ बाहर है, वहीँ दूसरी उथल-पुथल नेहा के मन में मची है। उसे लगा रोहन उसकी आँखों में अपनी नेहा को खोज रहा है। उसके चेहरे को पहचानने का प्रयास कर रहा है, उसकी आँखों में छुपे अनजाने रहस्य को जानने की व्याकुलता है। संभवतः वह कुछ पूछना चाहता है परन्तु मौन है।
नेहा को लगा कि रोहन सब कुछ जानकार उसे बेइज्जत करेगा। वहा कांप उठी। एक आशंका से वह सिहर उठी। उसे लगा रोहन की आखों ने उसके चहेरे के उतर चढाव पढ़ लिए हैं। अब वह जान ही गया है तो क्यों नहीं वह अपने आप बात देती कि लोकटाक में सुदीप को उससे प्यार हो गया। वह सुदीप से विवाह करेगी। सुदीप भी तो उससे असीम प्यार करता है। रोहन तुम तो मात्र छ: महीने के साथी हो। तुमसे मेरा विवाह मात्र हुआ है… शरीर का मिलन हुआ… पर… आत्मा… आत्मा का मिलन तो सुदीप से हुआ। वह बहुत अच्छा है। मेरे दिल पर राज करता है; उसने मेरी आत्मा, मेरी रूह, जिश्म सब पर अपने चुम्बन की अमिट मोहर लगा दी।
पर वह कुछ बोल भी नहीं पाती। अपनी बेबसी पर पछतावा होता है और नजरें नीची किये अपनी अँगुलियों से घास के तिनकों को नोचती हैं।
“तुम्हारे दिल्ली लौट आने पर मैं बहुत प्रसन्न हूँ।“ -रोहन ने कहा।
नेहा की ऑंखें थम जाती है। उसे लगता है रोहन कुछ और कहेगा, लेकिन रोहन मौन हो जाता है। विस्मय, कातर, और असमंजस भरी निगाहें वह रोहन के चेहरे पर टिका देती है। वह सोचने लगती है, ‘तुम कह क्यों नहीं देते रोहन कि नेहा तुम जाओ अपने सुदीप को अपना लो, मैं तुम्हें तमाम बन्धनों से आज़ाद करता हूँ। मुझे छोड़ तुम सुदीप से विवाह कर लो। कह दो रोहन… कह दो…।
मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ, क्यों तुम मुझे अपने बंधन में बांध में बांधें रखना चाहते हो? अगर तुम्हें किसी और स्त्री का प्रणय स्वीकार हो तो मैं बुरा नहीं मानूंगी। मान भी कैसे सकती हूँ रोहन जब मैं स्वयं प्रेम करती हूँ। सुदीप से प्रेम करने के बाद मैं तुम्हें अपना नहीं सकती। मैं अब तुमसे प्यार नहीं करती। मैं जानती हूँ रोहन तुम ऐसा कुछ भी नहीं बोलोगे। उस दिन जब मैं दिल्ली छोड़ अपना कैरियर बनाने तुमसे दूर जा रही थी तब क्या तुमने रोका? क्यों तुम इतने मितभाषी हो? मेरा बोलना भी तुम्हें बक-बक लगता है और एक सुदीप है जो मेरी चुप्पी पर बेचैन हो जाता है और एक तुम हो जो बोलते हो तो लगता है शब्दों का किराया चुका रहे हो? मुझे मालूम है तुम कुछ नहीं बोलोगे फिर भी कुछ सुनने को आतुर हूँ। परन्तु तुम्हारी नजरें घास की हरियाली को निहार रही हैं। एकदम मौन… शांतचित्त।“
ये क्षण मेरे लिए आत्मीय न सही लेकिन तुम्हारे लिए तो है। तुम कहो या न कहो लेकिन मैं जानती हूँ तुम मुझे नहीं छोड़ सकते। तुम मुझे बेहद प्यार करते हो। मेरे लोकटाक चले जाने के बाद सुदीप को मेरे सानिध्य में देखने के बाद, सुदीप से मेरी आशक्ति के बाद तुमने इस सम्बन्ध को टूटा मान लिया था। आज पुनः मेरे लिए दिल्ली आगमन पर तुम इस सम्बन्ध की पुनर्स्थापना का स्वप्न देख रहे हो। तुम आज तक मेरे आ जाने का इन्तजार कर रहे हो… तुम समझते हो नेहा आज भी तुम्हारी है।“
“लगता है मैं यह सब तुमसे न कह पाऊँ। मैं जिस आधार पर तुम्हारी ब्याहता बन कर आई थी वो आधार अब कहीं विलुप्त हो गया है। तुमसे दूर जाने पर जो रिक्त स्थान मेरे मन में बन गया था उसे सुदीप ने भर दिया है। अब तुम्हारे लिए स्पेस कहाँ से लाऊं?“
नेहा सोचती बहुत कुछ रही लेकिन मौन रही। कुछ कह ही नहीं पायी। कहे भी कैसे? आखिर रोहन ने किया ही क्या है?
“लगता है शाम बहुत ढल चुकी है। रात्रि अन्धकार का अंचल फ़ैलाने को आतुर है। आओ नेहा घर चलें।“ -रोहन के शब्द सुन नेहा चौंक पड़ी, मानो उसकी कोई चोरी पकड़ी गयी हो।
“जी आपने कुछ कहा?”
“हाँ, अँधेरा हो गया, अब घर चलें।“
नेहा खिसिया जाती है।
दोनों गाड़ी में बैठ घर चल पड़ते हैं। घर आने पर ‘डायनिंग टेबल’पर भी सन्नाटा है। नेहा का खाने में भी मन नहीं लग रहा है। सुदीप की याद आ रही है। कैसे अकेले खाना बना रहा होगा? उसे तो तवे पर रोटियाँ उलटनी-पलटनी भी नहीं आती। वह रोज उसके फ्लैट पर जाकर रोटियाँ सेंक आती थी। दोनों अक्सर साथ ही खाना खाते थे। रोहन की तरफ निगाह उठाकर देखती तो रोटी का कोर तोड़ने का अभिनय करने लगती। नेहा को लगता है मानो रोहन पूछेगा कि ‘तुम अब मेरे साथ रहोगी न?’
खाने की टेबल पर मौन ही मौन पसरा है। दोनों एक-दूसरे के निकट हैं। क्या आज भी वे एक आत्मीयता के क्षण में नहीं सिमट पाएंगे। नेहा का हाथ रोहन की ओर बढ़ता है यकायक वहीँ रुक जाता है। वह कुछ भी नही कह पाती, कुछ भी नही कर पाती। उसका विरोध न जाने किस जमीन से पैदा होता है और किन गहराइयों में डूब जाता है?
खाने के बाद दोनों अपने शयन कक्ष में चले जाते हैं। शयनकक्ष में भी वही मौन, वही दूरी। पर नेहा को न जाने क्या लगा कि रोहन उसके करीब बहुत करीब आ गया है। वह चाहती है कि कल की तरह आज फिर रोहन पहल करे। उसे छुए उसे उत्तजित करे, उसे अपनी बाँहों में भर ले, उसे चुम्बन करे। आज वह कल की तरह इन्कार नहीं करेगी, पर रोहित की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
धीरे-धीरे सारी छुट्टियाँ बीत रही हैं। सोते समय रोज दोनों एक साथ होकर भी अन्जान हैं। दोनों दो अजनबियों की तरह एक बेड पर सोते हैं। कोई संवाद नहीं। सोते समय उसे सुदीप की याद आती है। सुदीप की बलिष्ठ, लम्बी भुजाओं का घेरा उसे बेचैन कर जाता है। वह चाहती है कि दो बाहें उसकी कमर पर लिपट उसे अपने आगोश में ले ले। रोहन को कुछ कहने का साहस वह नहीं जुटा पाती। स्वयं के इन्कार के बाद वह रोहन से क्या कहे और किस मुँह से कहे?
हर रोज रोहन को अपना सच कहने का प्रयास करती पर आशंकाओं के भय से कुछ बोल नहीं पाती? अंतिम छुट्टी तक भी वह रोहन से कुछ बता नहीं पाती।
“कल तो तुम चली जाओगी?” -रोहन ने उसकी ओर देख कर कहा था।
“हाँ।“
“जाने के बाद क्या करोगी?”
“मतलब?”
“नहीं, ऐसे ही। तुम अब बड़ी लेखिका हो गयी हो। मैं ठहरा बिजनेसमैन, शायद हमारी मानसिक स्थिति में काफी फर्क तुम्हें यहाँ की याद न दिलाये।“
नेहा को लगा कि रोहन सुदीप का जिक्र करेगा लेकिन उसने बात को साहित्य की तरफ मोड़ अच्छा अभिनय किया। उसने सोचा कि कहे-“तुम जलते हो मेरी प्रसिद्धि से, मेरे लेखिका होने से और उससे कहीं अधिक जलन इस बात से होती है कि सुदीप मेरा साथी है।“ -पर कुछ कह नहीं पाती।
नेहा असमंजस की स्थिति में है। रोहन का व्यवहार, आचार, बातचीत का ढंग उसे वापस आने के लिए प्रोत्साहित करता है। सुदीप की छुअन का अहसास, उसके चुम्बन, घाटी की हरी घास में लेट उसके वक्ष पर चेहरा टिकाना और नितम्बों की गोलाई पर हाथ रख सहलाना, उसे सुदीप के पास हमेशा हमेशा के लिए चले जाने को विवश करते हैं।
उसने इन दिनों में रोहित के साथ आत्मीयता के क्षण बिताये। मौन रहकर भी उसका अनुनय, विनय, आश्रय पाने की लालसा, उसकी चुप्पी, उसका माधुर्य सब कुछ उसे बेचैन कर रहा है। उसे रोहन के प्रति एक आकर्षण की अनुभूति हुई। इन दिनों वे साथ घूमे-फिरे, मौन रहे। उसने महसूस किया कि पत्नी होकर भी रोहन ने उससे जबरदस्ती नहीं की। उसकी इच्छा के विरुद्ध जाकर कोई कार्य नहीं किया। क्या ये उसकी महानता नहीं, उसका बड़प्पन नहीं?
रोहन की ऑफिस मीटिंग थी, नेहा की ट्रेन गुवाहाटी के लिए जाने वाली थी। नेहा की इच्छा थी कि रोहन उसे विदा करने आये फिर भी उसने मना कर दिया कि आप मत आना। उसे कोई छोड़ने नहीं आया। कुली ने सामान सीट तक पहुँचा दिया। नीचे की बर्थ मिली थी, बैठते–बैठते सब नज़ारा देखकर सफ़र तय किया जा सकता था। गाड़ी चलने में पाँच मिनट सा समय शेष था। नेहा प्लेटफार्म पर खड़ी, मानो उसे किसी का इंतज़ार था। उसने रोहित को न आने को बोला था फिर क्यूँ इन्तजार कर रही थी।
उसने ट्रेन में चढ़ने का निर्णय लिया। तभी रोहित हांफता हुआ दौड़ता-दौड़ता उसकी ओर आता दिखाई दिया। हाथों में कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, नमकीन, बिस्कुट के पैकेट्स लिए।
नेहा दौड़ते हुए रोहित के पास जाती है- मैं पहुँच तो गयी थी फिर आप क्यों मेरे लिए तंग हुए? रोहित काफी थका हुआ लग रहा था। नेहा का मन हुआ कि उसका पसीना साड़ी के पल्लू से पोंछ डाले पर ऐसा नहीं कर पायी।
नेहा डिब्बे के पास जाकर कड़ी हो गयी, रोहित भी उसके पास खड़ा है। दोनों के बीच की दूरी बमुश्किल पाँच-छ: इंच। नेहा चाहती है कि रोहित कुछ बोले लेकिन फिर वही मौन। उसका हृदय अवसाद से ग्रस्त है। उसे रोहित पर प्यार आ रहा है और गुस्सा भी।
“रोहन! तुम मुझे हाथ पकड़ कर रोक क्यों नहीं लेते?” -नेहा ऐसा चाहकर भी नहीं कह पाई। शब्द तालू से चिपक कर रह गए। गाड़ी चलने की सीटी बजा रही है। नेहा ऊपर चढ़ जाती है। दोनों की नजरें एक-दूसरे से मिलती हैं। गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढती है। रोहन गाड़ी के साथ-साथ बढाता है। खिड़की से बाहर निकले नेहा के हाथ पकड साथ-साथ दौड़ रहा है। वह सिर्फ इतना ही कह पाता है- “अपना ख्याल रखना, हो सके तो मेल करना।“
गाड़ी रफ़्तार पकडती है। दोनों का हाथ छूट जाता है। नेहा की आँख से आँसूं टपक गालों को तर-बतर कर जाते हैं। उसे लगता है –एक अरसे के बाद इतनी आत्मीयता का स्पर्श वह आज अनुभव कर पायी है। यह क्षणिक सुख उसे दीर्घ सुख जान पड़ता है।
प्लेटफार्म पीछे छूट गया और प्लैटफार्म के साथ छूट गया रोहन उसका पति। अश्रुधारा शांत है लेकिन हवा के सर्द झोंको ने दो बारीक निशान गालों पर छोड़ दिए हैं। वह सीट पर हाथो का तकिया बना लेट जाती है। आँखें बन्द करती है तो सुदीप का चेहरा दिखायी पड़ता है, वह विस्मृतियों के आगोश में समा जाती है। सुदीप का उसके शरीर को छूना, चुम्बन करना, जगह-जगह हाथ लगा चुहलबाजी करना, खाने के बाद उसे अपने फ्लैट पर रुकने का आग्रह करना सब कुछ याद कर वह तड़प उठती है। उसे लगता है सुदीप साहित्य की मल्लिका बनाने के बदले उसका रूप यौवन लूट रहा है। वह उसके शरीर का उपभोग करता रहा है। उसका मन घृणा से भर उठता है।
साहित्य की चकाचोंध ने उससे निरा बचकाना करा दिया। वह महज एक पागलपन के चलते सुदीप की तरफ आकर्षित होती चली गयी। क्या ये सब बेवकूफी नहीं थी? रोहन का मुझसे विवाह हुआ, इसमें उसने कौन सी गलती की? वह साहित्य प्रेमी नहीं इसमें उसका क्या दोष? उसे लगता है उससे अपराध हुआ है। वह अपराधिनी है, रोहन की अपराधिनी। उसकी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा है। उसे लगता है वह किस आधार पर रोहन से सम्बन्ध तोड़ने जा रही थी? उसने कौन सा अपराध किया है, जिसके कारण मैं उससे तलाक लूँ? सारी दुनिया का कलंक मेरे माथे पर लगेगा। तिरस्कार, परिहास और घृणा का विष मेरे हिस्से आएगा, मुझे पतिता कहा जायेगा। तलाकशुदा होने के नीच कर्म का ठप्पा मेरे ऊपर लगेगा।
उसे अपने आप से घृणा होने लगी। उसे लगा सुदीप विश्वासघाती है जिसने एक विवाहित स्त्री को अपने वाक्-जाल में फंसाया। उसे याद आया सुदीप उसे अपने कॉलेज के समय से लेकर अब तक की प्रेमिकाओं के किस्से सुनाता था; तब क्यों नहीं उसे कुछ भी समझ आया? वह क्यों नहीं समझ पायी कि वह अपने सम्मोहन में स्त्रियों को फँसाता है। एक से मन भर जाता है तो दूसरी की तलाश के लिए निकल पड़ता है। वह एक ऐसे व्यक्ति के प्रेम की गिरफ्त में आ गयी जिसके लिए प्यार महज एक मजाक है और स्त्री भोगने का सामान।
नेहा ने निर्णय कर लिया कि वह सुदीप को कह देगी कि वह अपने निर्मल हृदय पति को छोड़ किसी अन्य के साथ जिन्दगी का निर्वाह नहीं कर पायेगी। वह हमेशा के लिए रोहित के पास चली जाएगी।
रेलगाड़ी गुवाहाटी स्टेशन पर प्रवेश करती है। आगे का रास्ता बस से तय कर वह लोकटाक पहुँचती है। सुदीप को उसके आने की खबर नहीं है। सुबह का समय है, सामने धूप की चादर फ़ैल गयी है। कंधे पर स्कूल बैग टांगे बच्चे जा रहे हैं। आज उसने स्कूल न जाने का निर्णय लिया। उसे आभास हुआ- सुदीप दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। लेकिन उसका यह भ्रम था। घंटा भर वह खिड़की के पास खड़ी रही; खिड़की को निहारती रही, सुदीप नहीं आया।
उसे अपने आप पर खीज होती है, क्यों वह सुदीप का इन्तजार कर रही है? मेज पर बिखरी पड़ी किताबों पर उसकी निगाह पड़ती है। सुदीप द्वारा गिफ्ट की हुई किताब ‘गुनाहों का देवता’ अपने हाथ में लेती है बार-बार किताब का शीर्षक उसके दिमाग में कोंधता है। वह शीर्षक पढ़ती जाती है शायद यह जानने का प्रयास करते हुए कि गुनाहों का असल देवता कौन है? अनिर्णय की स्थिति में पुस्तक मेज पर रख किचन का रुख करती है। एक गिलास पानी घूँट-घूँट पीती है। फिर अलमारी खोल, कपडे निकाल बाथरूम का रुख करती है।
सुदीप के दिए गए कपडे जो कभी वह बड़े चाव से पहनती थी आज उसे नागफनी के कांटे सरीखे चुभ रहे हैं। अचानक वह उन कपड़ों को हाथ में उठा डस्टबिन में फेंक फव्वारे के नीचे बैठ जाती है। वह चाहती है कि सुदीप के छूने से अपवित्र हुए शरीर को वह रगड़-रगड़ कर धो डाले। कपडे पहन बाथरूम से बाहर आती है तो सामने सुदीप खड़ा दीखता है। बाहर से दरवाजा खोल अन्दर दाखिल होता है। कुर्सी खीच बैठ जाता है। चेहरे पर पसीना है।
इच्छा होती है उसके सांवले चेहरे से अपने पल्लू से पसीना पोंछ डाले। कोई और समय होता तो उसने पोंछ दिया होता पर आज वह ऐसा नहीं कर पायी। सुदीप उससे बैठ जाने का आग्रह करता है। वह चाय का बहाना बना किचन में चली जाती है। सुदीप कुर्सी छोड़ किचन में चला जाता है। अपनी आदत के मुताबिक वह उसके गाल सहलाने लगता है। नेहा को उसकी हरकत पर गुस्सा आता है। नेहा के इस व्यवहार परिवर्तन पर सुदीप आश्चर्यचकित है। प्रखर बुद्धि, वाकपटुता में निपुण सुदीप एक शब्द भी नहीं बोल पाता। अपमानित महसूस कर वह बाहर निकल गलियों में खो जाता है।
नेहा कंप्यूटर ऑन करती है। अपनी मेल आई डी खोल रोहन को मेल करती है- रोहन, आज ही फ्लाइट पकड़ लोकटाक आ जाओ। हम एक साथ दिल्ली चलेंगे, और वही रहेंगे। मैं अपना ट्रांसफर दिल्ली करा लूँगी और अगर ट्रांसफर नहीं होता तो रिजाइन कर तुम्हारें साथ रहूंगी।
सिर्फ तुम्हारी
नेहा
शाम छ: बजे रोहन उसके फ्लैट के दरवाजे पर खड़ा डोरबेल बजा रहा है। नेहा दरवाजा खोलती है। रोहन को सामने खड़ा देखती है। एक पल उसने सोचा था –सुदीप होगा। एक क्षण वह संज्ञाशून्य हो उसे देखती है मानो कुछ पहचानने की कोशिश कर रही हो। वह अवचेतन में चली जाती है। पुनः चेतना में लौटती है तो उससे लिपट जाती है। एक मौन दोनों के बीच पसर जाता है, उनकी आँखों से आँसू बह रहे हैं।
शब्द शून्य खड़े दोनों एक-दूसरे को कसकर खड़े हैं। बांहों की जकड बढती जाती है। रोहन उसके मस्तक पर चुंबन करता है। वह अपने शरीर पर रोहित के होंठों का स्पर्श अनुभव कर रही है जिससे वह पूरे साल अनभिज्ञ रही। दोनों एक-दूसरे से चिपके खड़े थे- चुम्बित- प्रतिचुम्बित। नेहा ने परवाह नहीं की कि सुदीप सड़क पर खड़ा इस मिलन का हर नज़ारा देख रहा है। मेज पर पड़ी पुस्तक के पन्ने हवा में झरझरा कर फड़क उठते। कमरे में एक बार फिर मौन पसर जाता है।
सन्दीप तोमर
जन्म: जून 1975
जन्म स्थान: खतौली (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: स्नातकोत्तर (गणित, समाजशास्त्र, भूगोल), एम.फिल. (शिक्षाशास्त्र) पी.एच.डी. शोधरत
सम्प्रति: अध्यापन
साहित्य: 4 कविता संग्रह , 4 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह , एक लघुकथा संग्रह, एक आलेख संग्रह सहित आत्मकथा प्रकाशित।
पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन।
सम्पर्क: ड़ी 2/1 जीवन पार्क,
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मोबाइल: 8377875009
ईमेल आईडी: gangdhari.sandy@gmail.com