आज फिर तुम्हारा फोन आया , हमेशा की तरह अचानक जैसे किसी राह में कोई मासूम पक्षी आ जाता है, और जब भी यह अप्रत्याशित घटना घटती है , विस्मय सा महसूस होता है पर साथ ही लगता है जैसे कोई भुला – बिसरा गीत भी अचानक सुनने को मिल गया है। अचम्भे के साथ-साथ थोड़ी सी खीझ भी होती है कि जब इतने दिनों तक याद करने की जरुरत नहीं समझी तो अब ऐसा क्या हो गया कि फिर वही बरगलाने वाली बातें करके उम्मीदों को पंख देने का अभिनय। मैं जानता हूँ कि बाद में फिर से ढेर सारे दिनों के लिए ऐसी चुप्पी पसर जाएगी कि जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था । समझ में नहीं आता कि जिस राह पर चलना नहीं है या चल नहीं सकते, उसका रास्ता पूछने की जरूरत क्या है ? यह या तो मूर्खता है या फिर धूर्तता। यह प्रेम की राह तो हो नहीं सकती । प्रेम किसी से भी हो , या तो होता है या फिर बिलकुल नहीं होता । इसमें बीच का कोई रास्ता नहीं होता ? मन करता है कि कॉल को नजरअंदाज कर दूँ , फोन न उठाऊं। दो – चार बार कॉल आएगी , रिस्पॉन्स नहीं दूंगां तो कॉल आनी अपने आप बंद हो जाएगी। पर आदत से मजबूर हूँ या यूँ कहूं कि दिल की कमजोरी कि कभी – कभी ही सही ,तुम्हारे स्वरों से निकली बातों के सुरीलेपन के नशे में खोना अच्छा लगता है । इसलिए तुम्हारी बातें सुनना और तुमसे बात करना मेरी मजबूरी बन जाती है। जानता हूँ कि उसके गहरी उदासी ही हाथ लगनी है।आज भी यही हुआ है।
भले ही अंदर को कोमलता तक उतर जाने वाली तुम्हारी बातों में मिठास की अनुभूति होती है पर तुम्हें सुनते हुए मैं कई बार तल्ख भी हो जाता हूँ और दिमाग में उलझन इस बात की रहती है कि इतना कुछ और इतनी बार हो जाने के बाद भी तुमने खुद को बदलने की जरा भी कोशिश नहीं की है । उलटे मुझे ही उलाहना दिया है कि तुमसे बात करते हुए मैं गुस्सा क्यों होने लगता हूँ ? तब मुझे सफाई भी देनी पड़ती है कि तुम इन्तजार ही इतना करवा देती हो कि मेरा कोना – कोना उलझन से भर जाता है , क्यों करती हो ऐसा ? तब तुम कोई उत्तर दिए बिना बस इतना ही कहती हो , ” क्या करूँ , मैं हूँ ही ऐसी ! मुझे इसी रूप में स्वीकार कर लो।” तब मेरी सारी उलझन न जाने कहाँ गायब हो जाती है ! आज भी ऐसा ही हुआ है। हफ्तों क्या कभी – कभी महीनो बाद फोन करना। फोन पर अविश्वसनीय सी लगने वाली आत्मीयता प्रदर्शित करना, अपेक्षाओं को हवा देना , जिंदगी के कठिन लगने वालों क्षणों को प्यार से सराबोर बातों की अल्हड़ नरमी से इतना गुदगुदा देना कि दुनियावी उलझनों में उलझी हुई तंद्रा की तपिश में भी ठंडी फुहारों की ठंडक का एहसास होने लगे।नहीं जानता कि इस तरह की काबलियत तुमने जिंदगी के किस स्कूल में सीखी है । तुम पिछ्ले पाँच साल से इसी तरह , महीने – दो महीने या उससे भी ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद , जब मैं खुद को तुमसे लगभग अलग कर चुका होता हूँ या करने के कगार पर खड़ा होता हूँ , तुम्हारा नाम मेरे मोबाईल के स्क्रीन पर डायलर ट्यून के साथ चमकने लगता है। इस बीच मैं भूल चूका होता हूँ कि तुम कभी मेरी किसी दिनचर्या का कम या ज्यादा हिस्सा थीं । तुम मुझसे मिलने या मेरे साथ कुछ पल बिताने के लिए पूरी कोशिश किया करती थीं। मुझे भी तुममें ज्यादा न सही , कुछ न कुछ भविष्य दिखाई देने लगा था क्योंकि तुम अपनी बातों में अक्सर कहतीं थीं कि तुम इस जन्म में अंतिम समय तक मेरे साथ जुड़े रहना चाहती हो। कुछ सालों तक मेरे प्रति तुम्हारे व्यवहार से ऐसा लगा भी था , खास तौर से उस दिन जब हम दोनों पास के एक मॉल में साथ – साथ घूमने के लिए गए थे , जिसकी योजना तुमने ही बनाई थी और खुशनुमा ढंग से हमने साथ – साथ सारा दिन बिताया था । पर उस तरह का वो दिन आखिरी दिन साबित हुआ था । उसके बाद जब भी मैंने ऐसी कोई कोशिश की तो तुमने कोई न कोई बहाना बनाकर मेरी हर कोशिश को साकार करने से पहले ही नाकाम कर दिया था।
फिर हम फोन कॉल तक सिमट कर रह गए और वह भी एकतरफा। क्योंकि फोन करने का अधिकार भी तुमने अपने पास रख छोड़ा था। मैं फोन करता तो तुम कह दिया करतीं कि अभी मैं कहीं व्यस्त हूँ और बात नहीं कर सकती , मैं तुम्हें बाद में फोन करूंगीं और तुम्हारा फोन आने में हफ़्तों लग जाते । तुम्हारे इस व्यवहार से शुरू – शुरू में तो मैं बहुत ज्यादा अन्मयस्क हो जाता था , मायूसी भी घर कर जाती थी , खुद से नाराजगी भी होती थी कि तुम्हें लेकर मैं सपनों की उस दुनिया का हिस्सा बनता ही क्यों हूँ , जो कभी सच नहीं हो सकती।फिर भी दिल की बेचारगी कि मैंने तुम्हारी इस आदत से समझौता कर लिया और मुझे भी इन सबकी आदत हो गयी। मैंने धैर्यपूर्वक मान लिया कि तुम्हारी कुछ मजबूरियां होंगीं जिसकी वजह से तुम मुझे अपना भी नहीं सकती और मुझसे पूरी तरह से दूर भी नहीं जा सकतीं। फिर समय के साथ बहुत कुछ बदलता चला गया।
आफिस का साथ छूटा तो तुम अपने नए आफिस ,अपनी गृहस्थी और बड़े होते हुए बच्चे में व्यस्त हो गयीं। मर्यादा की बेड़ियों ने तुम्हें ही नहीं मुझे भी जकड़ लिया। उम्र के इस पड़ाव पर किशोरावस्था की दीवानगी तो मुझमें भी नहीं थी कि दुनियादारी की सारी ऊंच – नीच भूलकर तुम्हारी ही याद में खोया रहता और किसी पागल प्रेमी की तरह किसी भी रूप में तुम्हें पाने की कोशिश में लगा रहता , भले ही रह – रह कर तुम्हारे साथ बिताया समय और तुम्हारे साथ की गयीं वो आत्मीय बातें जो किशोर उम्र के प्रेमी करते हैं , आज भी जब याद आतें हैं तो मन में गुड़गुदाहट होने लगती है। अब तो जानता हूँ कि वे सब खट्टी या मीठी बातें बनते – बिखरते बादलों की अठखेलियां थीं ,जो आते तो हैं पर बरसते नहीं और हवा के झोंकों के साथ चुपचाप चले जाते हैं। पर मुझे कचोटने वाली बात यह होती है कि तुम्हारे मन की वे कौन सी मजबूरियां हैं जिनके वशीभूत होकर तुम फोन कर बैठती हो और जिसे मैं भी सुने बिना नहीं रह पाता।
तुमसे अलग होने के शुरू के दिनों में , कभी – कभार आने वाले तुम्हारे फोन को पाकर मैं उत्साहित हो जाया करता था और चाहता था कि तुम्हारा फोन जल्दी – जल्दी आया करे। इससे कम से कम कुछ ही सही मेरी भावनात्मक जरुरत तो पूरी होती ही है क्योंकि फोन पर तुम बड़ी बेबाकी से अपने मन की वो बातें कह जाती हो , जो मेरी कल्पना से परे होती है और मुझे भरपूर गुदगुदा जाती हैं । तुम हंसती हो , आभासी रूप से ही सही अंक में भरती हो ,होठों को स्पर्श भी करती हो, किसी भी तरह के गिले – शिकवों से दूर अपनी झंकृत हंसी से मेरे ह्रदय को स्पंदित भी करती हो। तुमसे बात कर चुकने के बाद मैं किसी सुरमई साँझ के सुरीलेपन में खो जाया करता था और लोगों की कही यह बात याद करके सच लगता था कि कि प्यार की कोई उम्र नहीं होती , प्यार की कोई मर्यादा नहीं होती और प्यार की कोई तय जगह भी नहीं होती। प्यार तो किसी से भी और कभी भी हो जाता है । प्यार का एक सच यह भी है कि वो बार – बार हो सकता है। जिंदगी में कब कौन प्यारा लगने लगे , यह कोई नहीं जान सकता। तुम्हारी बातें मुझे भीतर तक गुलाब की सुगंध से भर जाया करती थीं। तुम जैसे ही फोन रखतीं , मैं उसी समय से तुम्हारे फोन का इन्तजार करना शुरू कर देता था , जबकि मैं यह भी जानता था कि अब न जाने कब तुम फिर से तुम्हारी नशीली बातें सुनने को मिलेंगीं !
जब लम्बे समय तक तुम्हारा फोन नहीं आता था और मैं हारकर लगभग उम्मीद छोड़ चूका होता था तब अचानक तुम्हारा फोन आता तो मुझे लगने लगता था कि मेरे अंदर की किसी रुकी हुई धारा को फिर से गति मिल गयी है। धीरे – धीरे तुमने फोन करने के अंतराल को बढ़ा दिया है और बढ़ते – बढ़ते यह दिनों से महीनो में बदल गया है ।
अब यह अंतराल इतना बढ़ गया है कि इन्तजार करते – करते मैं स्वयं को आशा – निराशा के भंवर में फंसा पाने लगा हूँ। तुम्हारे साथ सपनो सरीखी प्रेमातुर बातें मुझे लगातार याद आती हैं और फिर जो कुछ मेरे अस्तित्व पर बीतता है , वो किसी प्रताड़ना से कम नहीं होता। कुछ समय तक मैं बिफरा और खीझा हुआ रहता हूँ। मेरा किसी काम में मन नहीं लगता। घर के सभी लोगों से झगड़ने की इच्छा होने लगती है। हर पल तुम्हारे पास होने और रहने की असम्भव कल्पनाओं में खोया रहता हूँ जबकि असल में मिलता कुछ भी नहीं है। कभी – कभी तो लगता है किसी मनोचिक्त्सक से मिलकर अपनी समस्या का हल ढूंढूं। तुम्हारा नंबर अपने मोबाईल से हटा दूँ। जो मैं चाहकर भी कर नहीं पाता। मेरी यह कमजोरी भी मेरे लिए एक सजा बन जाती है। इसलिए अब , जब भी मैं मोबाईल की कॉल पर तुम्हारा नाम देखता हूँ तो वह मेरे अंदर उत्साह की जगह , मेरे कानों के पर्दे पर एक शोर भरी उलझन पैदा करती है। फिर भी मैं अपनी किसी अदृश्य संस्कारगत कमजोरी की वजह से फोन के हरे बटन को स्लाइड कर देता हूँ और तुम्हारी बात सुनने लगता हूँ।
‘ हेलो ‘ के बाद हर बार तुम्हारा प्रश्न होता है , ” कैसे हो ? ” तुम्हारे स्वर और बोलने के अंदाज में वही सुरीलापन होता है , जिसमें तुम सिद्धहस्त हो। पहले मुझे यह सब तुम्हारी स्वाभाविकता लगती थी परन्तु अब अभिनय लगता है। मेरा सच यह है कि पहले तुम्हारे इस प्रश्न की मासूमियत पर मैं अपनी पुलकित प्रतिक्रिया व्यक्त करता था। मुझे लगता था मैं भले ही तुम्हारे पास नहीं हूँ परन्तु मेरी याद में हमेशा मैं तुम्हारे पा रहता हूँ , मुझसे दूर रहकर भी तुम मेरे चिर सम्पर्क में रहती हो और तुम्हारे और मेरे बीच कोई ऐसा आत्मीय और अदृश्य अनुबंध है जिसकी वजह से तुम अपने साथ मेरे सानिध्य को जरुरी समझती हो। मुझे याद करते – करते या अपने पास न पाकर जब तुम थक जाती हो या अपने किसी अकेलेपन से परेशान होकर घोर अकेलेपन से घिर जाती हो तब बेताबी में तुम्हारी अंगुलियां तुम्हारे मोबाईल पर मचलने लगती हैं और तुम मेरा नंबर मिला लेती हो। तुम अपने अकेलेपन की हर बात मुझसे शेयर करना चाहती हो। मुझमें तुम्हें कोई बेहद अपना दिखाई देता है। सामाजिक बंदिशें और तुम्हारे परिवारक संस्कार तुम्हें मुझसे बात करने से कुछ समय तक भले ही रोक देते हों पर तुम्हारे अंदर जो स्त्री रहती है या जिसकी कुछ भावनात्मक जरूरतें हैं और वही तुम्हें मुझ तक ले आती हैं।
फोन पर बात करते – करते कभी – कभी तुम इतनी मुखर हो जातीं थीं कि एक बार तो तुम यह भी कह गयीं थीं कि आयुष के जन्म के बाद पिछले दस साल से तुमने किसी रति – सुख का अनुभव नहीं किया है। तुम्हारे अधरों का किसी ने स्पर्श नहीं किया है। तुम्हारी इन त्रासद स्वीकृतियों से मैं भले ही स्तब्ध हो गया था पर शायद मेरी पुरुष देह को इसमें ,अपने लिए एक अवसर भी दिखाई देने लगा था। तब कभी – कभी मुझे लगता था कि हो सकता है मुझसे बात करने या सम्पर्क रखने की एक वजह तुम्हारी अतृप्त दैहिक जरूरतें हैं । परन्तु मुझे परेशान करने वाला एक और सच यह भी है कि उस दिन के बाद जब भी मैंने तुमसे अकेले में कहीं मिलने की बात की तो तुमने मेरे आग्रह को बड़ी चतुराई से टाल दिया था । इसलिए मैं यह कभी नहीं जान पाया और न ही यह तय कर पाया कि निरंतर मेरे समीप रहने की आखिर तुम्हारी वास्तविक मजबूरी क्या है ! मेरे लिए तुम्हारा यह रहस्य और उससे उपजा मेरा असमंजस मुझे हमेशा परेशान करता रहा। मनोविज्ञानी के रूप में दूसरों के मन की गुथियों को सुलझाती मेरी सामर्थ्य मेरे ही अंदर घर करती गुथियों में उलझने को मजबूर हो गयी थी ।
आठ साल पहले जब हम एक कार्यक्रम में मिले थे तब तुम्हारे पति अभिनव ने तुमसे मेरा परिचय करवाते हुए कहा था कि तुम विवाह से पहले बैंकिंग सेक्टर में थीं और विवाह के बाद तुमने घर को ही अपना कॅरियर बना लिया है पर अब अपने खाली समय का उपयोग किसी अन्य उपयोगी काम मेम करना चाहती हो। फिर बातों ही बातों में अभिनव के ही माध्यम से पता चला था कि तुम शेयर्स में रूचि रखती हो और चाहती हो कि मैं इसमें तुम्हारा कुछ मार्गदर्शन करूँ क्योंकि मैं भले ही एक साइकोलॉजिस्ट हूँ पर शेयर्स के कारोबार में थोड़ी – बहुत दखलंदाजी रखता हूं। तुमने मेरा फोन नंबर वहीँ लिया था।
उस दिन के बाद बहुत से दिन तक एक – दूसरे से हमारी कोई बात नहीं हुई।
फिर अचानक एक दिन तुम्हारा फोन आया और तुमने मुझसे पूछा कि क्या मैं एक फार्मासिटिकल कम्पनी जिसने पहली बार अपना आई पी ओ लांच किया है , में इन्वेस्ट कर दूँ ? मैं पहले ही उस कम्पनी में दांव लगाने का निर्णय कर चुका था। इसलिए मैंने इस विषय की सारी खूबियां और रिस्क फेक्टर तुमसे शेयर किये थे। तुम्हारे निर्णय और समझ की दाद भी दी थी। उस दिन बहुत देर तक हम फोनपर बात करते रहे थे। तुमसे बात करके मुझे तो अच्छा लगना ही था। तुम्हारी बातों से भी मुझे लगा कि तुम भी वार्तालाप के सिलसिले को तोड़ना नहीं चाहती । उस दिन तुम पहले से अधिक मुखर थीं और तुम्हारी बातों के अंदाज में चुलबुलाहट भरी हुई थी। शेयर मार्किट से अलग बातों ही बातों में तुमने शर्माकर यह तक पूछ लिया था कि मनोविज्ञान से बाहर शेयरों कि दुनियां में ही उलझे रहते हैं या बेड और तकिये की गोल – मोल दुनिया में भी रूचि रखते हैं , कोई गर्ल फ्रेंड भी बनाई है कभी या जिंदगी की नीरसता को ही स्वीकार कर लिया है ? तुम्हारे बेबाक सवाल मेरे लिए भले एक अजूबा था पर इस प्रश्न ने मेरे सारे अस्तित्व को झूमने पर मजबूर कर दिया था। जैसे मैं यही सब तो तुमसे सुनना चाहता था। इससे पहले कि मैं शरारत से भरपूर वैसा ही कोई उत्तर देता कि अचानक तुम्हारे घर की बेल बज उठी । शायद तुम्हारे पति अभिनव के आफिस से आने का समय हो गया था और तुमने फोन काट दिया था। उसके बाद तुम्हें लेकर मेरी उतकंठा जितने चरम को छूने लगी थी उतनी ही मजबूर और बेहाल भी हो गयी थी। स्वयं को नियंत्रित करने के मनोविज्ञान के मेरे सारे सिद्धांत असफल से लग रहे थे। वो शाम और उसके बाद की सारी रात मैंने बड़ी लाचारी में गुजारी थी।
अगले दिन , दिनभर मैं तुम्हारे फोन का इन्तजार करता रहा। दोपहर बाद तुम्हारा फोन आ भी गया। मुझे लगा जैसे मेरे मन को उसकी मुराद मिल गयी। हम दोनों ने ढेर सारी बातें कीं। सब की सब शरारत से भरपूर, और ज्यादातर शरारतों की शुरुआत तुमने ही की थी। उस दिन के बाद से तुम्हें लेकर तुमसे मेरी अपेक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ गयीं। मैं फोन पर बात करने से आगे की सोचने लगा। मुझे विश्वास सा होने लगा कि अब वो दिन दूर नहीं है जब हमारे बीच की सभी दूरियां मिट जाएँगी और इसकी पहल भी तुम ही करोगी। मैं रात के साथ – साथ दिन में भी यही सपने देखने लगा। मेरा मन रोजमर्रा के अपने किसी भी काम में लगने से हटने लगा। मेरे लिए शांत चित्त होकर बैठना दूभर हो गया। मेरी हालत चिकत्सक की जगह मनोरोगी की सी हो गयी। हर पल तुम्हारे फोन की प्रतीक्षा ने मेरे चित्त को अशांत कर दिया। जबकि मुझे यह भी पता था कि तुम इतनी जल्दी फोन नहीं करोगी। मैं मन ही मन हर पल यही योजनाएं बनाता रहा कि इस बार जब भी तुम्हारा फोन आएगा , मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात या यूँ कहूं कि अपनी मांग तुम्हारे सामने रख दूंगा क्योंकि मुझे विश्वास हो चुका था कि अब तुम भी इस रूप में मुझसे दूर नहीं रह सकतीं।
बड़े दिनों की प्रतीक्षा के बाद तुम्हारा फोन आया। तो मैंने बिना किसी भूमिका के मैंने कहा ,” अब हमें फोन से बाहर निकलना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं पागल हो जाऊंगाँ । तुम तुरंत मेरी बात का मतलब समझ भी गयीं है ! परन्तु तुमने बड़ी चतुराई से मेरे प्रस्ताव को टाल दिया। मैंने जिद की तो तुमने कहा था ,” हो सकता है , मैं भी यही चाहती होऊं पर यह बताओ कि हम कब , कैसे,और कहाँ मिल सकते हैं । क्या ये चाहते हो कि तुम्हें फोन करने की हालत में भी न रहूं ? तुम्हें पता है न कि भले ही मैं तुम्हें याद किये बिना नहीं रह सकती पर मेरी कुछ पारिवारिक मजबूरियां और वर्जनाएं भी हैं , जिन्हें मैं झुठला भी नहीं सकती । मेरे पास तुम्हारी इस दलील का कोई उत्तर नहीं था। मैं मन मसोस कर रह गया था ।”
यह सब सुनकर मैं निराश तो हुआ था पर पूरी तरह से नाउम्मीद नहीं । मैं खुद से सवाल करने लगा कि यदि तुम मेरी होनी ही नहीं थी थी तो भाग्य ने इस रूप में मुझे ,तुमसे मिलवाया ही क्यों था ? फिर मैं स्वयं को विशवास दिलाता कि ऊपर वाले ने किसी खास वजह से मुझे तुमसे मिलवाया है। इसलिए निराशा में खोने कि जरुरत नहीं है। उस दिन के बाद भी तुम्हारा फोन उसी ले में आता रहा। तुम्हारी बातें वैसी ही होती रहीं जो मेरे दिल की धड़कनों में खास तरह के स्पंदनो की लहरें उत्पन्न करतीं। बदले में मेरे आग्रह भी वैसे ही बने रहे ।, जिनके विरोध में न कभी तुम नाराज हुईं और न हीं तुमने कभी फोन करना बंद किया। उलटे कभी – कभी तो वैसे ही विचार तुम स्वयं भी मुझसे शेयर करने लगीं थीं। एकांत में मिलने के लिए तुमने कभी स्वीकृति नहीं दी।
” कोई क्यों इतना अपना लगने लगता है जबकि उससे कोई दुनियावी रिश्ता भी नहीं होता ? ” तुमने एक बार पूछा था ।
मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया था।
” कुछ बोलते क्यों नहीं ? क्या मेरी बात नहीं सुनी ? ” तुमने फिर कहा था।
” अनु ! जो दुनिया के किसी भी रिश्ते में नहीं आता , उसके बारे में इतना सोचना ठीक नहीं है। ” मैं इतना ही कह पाया था ।
” अरे यार बात को घुमाओ मत । जवाब नहीं देना चाहते तो मत दो । ” तुमने अपनी नाराजगी पर भी अपनी मधुर हंसीं बिखेर दी थी।
” हम क्यों करते हैं एक – दूसरे से बात ? ”
मेरे पूछने पर तुमने कहा था , ” क्योंकि हम दोनों को इस तरह बात करना अच्छा लगता है। मूड फ्रेश हो जाता है । चित्त में एक संगीत सा बजने लगता है। अपने पास तुम्हारी उपस्थिति किसी विशेष की उपस्थिति से भर देती है। स्वयं में भी विशेषता का एहसास होने लगता है। इस ताजगी को पाने के लिए ही हम आपस में बात करते हैं। ”
मैं फोन पर तुम्हें देख तो नहीं सकता था पर अपनी बात पूरी कर चुकने के बाद तुम मुस्कुरा रही हो , ऐसा मुझे महसूस हुआ। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मेरी देह , मुझ पर हावी थी। मैं तुमसे कुछ और सुनना चाहता था।
कुछ क्षण की चुप्पी के बाद तुम उद्विग्न होकर बोलीं ,” हेलो ! कुछ बोलते क्यों नहीं ? ”
” क्या बोलूं यार ? ये कैसा प्यार है ,जो सिर्फ अपने लिए होता है ,अपनों के लिए कोई जगह ही नहीं होती ? ”
” सिर्फ अपने लिए कैसे ? मुझसे बात करके क्या तुम यह महसूस नहीं करते कि तुममें कुछ तो ऐसा है जो तुम मुझे इतने अच्छे लगते हो कि तुम अक्सर मेरी यादों में आते हो जबकि मैं एक ऐसे शख्स कि ब्याहता हूँ जो सादगी और विचारों की सरलता में यकीन करते है और मुझ पर कोई बंदिश भी नहीं लगाते। क्या यह हमारी जिंदगी कि यूनीकनेस है ?उदास क्यों होते हो , चिल करो मेरे देवदास। ” इसके बाद देर तक तुम अपनी झंकृत कर देने वाली हंसीं में डूबी रही थीं।
मैं कह तो कुछ नहीं पाया था पर तुम्हें पाने की मेरी उतकंठा जरूर बढ़ गयी। साथ ही मेरे अंदर के मनोचिकित्सक को विश्वास होने लगा कि तुम अपनी किसी मानसिक दुविधा में कैद हो और उस दुविधा से मुक्ति पाने के लिए मुझे किसी दवा की तरह इस्तमाल कर रही हो। हो सकता है अभिनव तुम्हारी देह से दूर हों पर तुम दिल से उसके ही पास हो और वजह कोई भी हो तुम स्वयं भी तय नहीं कर पा रही हो कि दिल कि बात मानो या दिमाग की सुनो।
मैं भी स्वयं को अब और अधिक संताप में डालने की हालत में नहीं था। क्योंकि मुझे लगने लगा था कि मुझे लेकर तुम असमंजस में हो और तुम्हारे असमंजस कि वजह से मेरी मानसिक स्थिति पर बुरा असर होने लगा था। मुझे लगने लगा था कि मैं किसी फूटबाल जैसा पदार्थ हूँ जिसे किसी भी ओर लुढ़काया जा सकता है।
मैं सबकुछ भूलकर अब स्थिर हो जाना चाहता था जिससे मैं अपने दूसरे कामों में मन लगा सकूँ। साइकोलॉजिस्ट होने के कारण इसमें मुझे सफलता मिलनी शुरू भी हो गयी थी । कि आज फिर तुम्हारा फोन आ गया।
मैंने सोचा कि इग्नोर कर दूँ। फिर यह मुझे ठीक नहीं लगा।
मैंने कहा , ” हेलो। ”
” कैसे हो ? ” हमेशा की तरह तुमने पूछा ।
” ठीक हूँ तभी तो फोन पिक किया है। ”
” हमेशा रूठी हुई लय में ही क्यों बात करते हो ? ”
” सच बोलना रूठना नहीं होता। ” तुम्हें लेकर मैं अक्सर सोच बैठता हूँ कि जहाँ निष्ठुरता रहती है , वो जगह भी निष्ठुर ही होती है।
” फोन ही तो पिक किया है , मुझे तो नहीं न , जो इतना भाव खा रहे हो। ”
” रहने दो चाशनी से चढ़ी अपनी ये मायावी बातें। मुझे इनमें कोई रूचि नहीं है ी”
” जानती हूँ तुम्हारी रूचि किन बातों में है , क्या वो सम्भव है , तुम्हीं बताओ ?
” मैं खुद को अब प्रताड़ित महसूस करने लगा हूँ। निष्ठुरता की भी कोई सीमा होती होगी। ”
” निष्ठुरता की सीमा होती है या नहीं होती , मुझे नहीं पता पर मेरी सीमायें तो हैं हीं। इसलिए मुझे निष्ठुर मत कहो। ”
” सिर्फ अपने बारे में ही सोचती हो। ”
” फोन पर इतना कुछ होता तो है ? ”
” मुझे और अधिक आहत मत करो। तुम तो अपने मन की करके निकल जाती हो , उसके बाद मुझपर क्या बीतती है , सोचा है कभी ? वो किसी प्रताड़ना से कम नहीं होता। न जाने कितनी बार पागलपन की हालत बनी है ,अवसाद का शिकार हुआ हूं ,रातों की नींद खराब हुई है , नींद की गोलियां तक लेनी पड़ीं हैं।अब यह सब मुझसे सहा नहीं जाता। ”
” मुझे अपराधी ठहरा रहे हो, आखिर मैंने किया क्या है ? ”
” तुम्हें यह मुझसे नहीं , अपने आप से पूछना चाहिए। तुमने कुछ किया ही नहीं है , सबकुछ अपने आप हो गया , इतना दुख और प्रताड़ना तो कोई अपने शत्रुओं को भी नहीं देता होगा , शायद ।”
” इतनी ही अपराधी हूँ तो ठीक है , अब कभी फोन नहीं करूंगीं । कह दो अभी रख दूं इसे । ”
” हाँ रख ही दो , आत्म हत्या मैं भी नहीं करूँगा। कोशिश करूँगा कि मेन्टल अस्पताल भी न जाना पड़े। ”
दोनों ही मजबूर हो गए थे। फोन रखा जा चुका था। प्रेम की अपनी उत्फुललताएँ थीं , मान्यताओं की अपनी वर्जनाएं थीं।
दोनों एक – दूसरे का नंबर मिलाते और फिर कुछ सोचकर मिटा देते। जब- जब वे ऐसा करते तब – तब हवा की सांय – सायं उनके कानों में गूंजती और वे समझ जाते कि हवा इधर से उधर और उधर से इधर लगातार बह रही रही है।
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद – 201005 ( ऊ. प्र. ),मो : 9911127277