कविता
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कविता में भाषा को
लामबन्द कर
लड़ी जा सकती है लड़ाईयां
पहाड़ पर
मैदान में
दर्रा में
खेत में
चौराहे पर
पराजय के बारे में
न सोचते हुए ।
रोहित ठाकुर
समय को कीड़ा लग गया है
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समय को चाट रहा है कीड़ा
पैर को सड़क चाट रही है
शरीर को चाट रही है भूख
मनुष्य की आवाज़ को चाट रही है दीवार
दीवार को चाट रही है सीलन
आईना चाट रहा है चेहरे की दिव्यता
पिता की हताशा
चाट रही है बच्चों की चंचलता
चकित हूँ
दीमक किताब को नहीं
मनुष्यता को चाट गया है
माँ कहती है –
समय को कीड़ा लग गया है |
रोहित ठाकुर
बहुत पिया है ज़हर तिमिर का
बहुत पिया है ज़हर तिमिर का,
चलो मनाये जशन तिमिर का ..
मिटा तिमिर तो सुबह भी आई,
हृदय से परखो नयन तिमिर का।
छुपा कहाँ ज़रा उसे तो ढ़ूँढो?
हुआ कभी क्या पतन तिमिर का?
तम का घूँघट सुबह की किरणें,
बहुत विशाल गगन तिमिर का।
शबे-नूरानी महकती दुल्हन,
सुला के जागा चमन तिमिर का।
ज्योति-पुँज को हृदय से पूजो,
तब पाओगे रतन तिमिर का।
तनिक नयन में झाँक के देखो,
दर्द है कितना गहन तिमिर का।
तम की साँसों से मत पूछो,
क्या उसने देखा रहन तिमिर का?
रोई बहुत कल चाँदनी आकर,
देख लिया क्या रुदन तिमिर का।
आस निराश दो साहिल जैसे,
बहती नदिया शयन तिमिर का।
चला वो मेरा साथी बनकर,
शान से उड़ा परचम तिमिर का। ..
दियों की बाती सहज से बोली,
चूम के देखो शिखर तिमिर का।
“कमल” की रौनक़ बयाँ तिमिर से,
बहुत नशीला असर तिमिर का।
बहुत पिया है ज़हर तिमिर का .. चलो मनाये जशन तिमिर का ..
कमल किशोर राजपूत “कमल”, बैंगलुरू – भारत
पाजेब
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मैं तुम्हारे शहर में
अजनबी हूँ सुल्तान अब्राहिम
तुम्हारी बादशाहत की
गवाही देता शहर बुखारा
पर कहीं नहीं दिख रहे
तुम्हारे 18 लाख
घोड़ों ,हाथियों के निशान
तुम्हारे सवा लाख के जूते
हीरे ,पन्ने ,जवाहरात
कुछ भी तो नहीं
एक सन्नाटा है
तुम्हारी बादशाहत का
सूने वीरान महल ,दरीचे
न जाने क्यों मौन हैं
तिलिस्म सा रचती
उंगली पकड़कर
राजपथ की ओर ले जाती
गलियाँ मौन घुटन
और सन्नाटे से भरी हैं
इन गलियों में घूमते हुए
सुल्तान अब्राहिम मैंने तुम्हारी
16हज़ार पटरानियों के
महल भी देखे
महल के हरम भी देखे
हम्माम भी देखे
मीना बाजार भी देखे
जहाँ बिकते थे जिस्म
तुम्हारी हवस और विलासिता की गवाही देते सारे के सारे
बुर्जियाँ, नक्कारखाना ,दीवानेखास बारादरी उठते बैठते कबूतर
एक ठंडा सन्नाटा
एक दर्द भरा इतिहास
सोलह हज़ार मलिकाओं का
चलते चलते रुकी हूँ
सुनाई दी है पाजेब की
समवेत आवाजें
छन छन छन छन
जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंदे
तुम नहीं हो सुल्तान अब्राहिम
पर तुम्हारे औरत पर किए
जुल्म जिंदा है
उन जिंदा जुल्मों के साथ
तुम भी सुलग रहे हो
आसान नहीं है
औरत पर जुल्म कर
एक पल को भी चैन पाना
संतोष श्रीवास्तव
परीजादियों का शाप
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महल की मुंडेरें
रात को चीखती हैं
बबूल के कांटेदार
पेड़ों में उलझ कर
घड़ी दो घड़ी बाद
खामोश हो जाती हैं
बस्ती के बाशिंदे
खंडहर महल और
टूटी फूटी मुंडेरों को
देखने आए पर्यटकों को
मनगढ़ंत कहानी सुनाते हैं
बहुत नजदीक से गुजरता है
ऊँटों का काफिला
जिसकी कूबड़ उठी पीठ पर
मखमली पालकी में बैठकर
सैर करने आई है
फिरंगी मलिका
रात को ठहरने के बावजूद भी
चीख उसे सुनाई नहीं देती
वह जानती है
उस खूनी मुंडेर के किस्से
उसके ही पूर्वजों ने ढाए थे
जुल्मों सितम
महल की परीजादियों पर
परिजादियों का शाप
न मुंडेरों को ढहने देता है
न बसने
संतोष श्रीवास्तव
पतझड़ की पाती
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पतझड़ की पाती हू, पर जीर्ण नहीं मैं
विशालता गगन सी नहीं , पर संकीर्ण भी नहीं मैं
झड़ने को हूं जीवन की डाली से
सजग हूं फिर भी रंगों की लाली से
टूटने का विषाद नहीं , नही हृदय में मलाल
अचल परंपरा है यही , प्रकृति का परम विधान
ऊष्मा नवनीत अंकुरित नयी पात की आस से
भर जायेगी डाली फिर से मानवता के विकास से
वंदना रूही ख़ुराना
ग्रेट यारमथ, यूँ.के.
पहाड़ सा जीवन कैसे कटेगा
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सुनती हूं जब यह तो मन में एक ही विचार आता है
क्यों पहाड़ को ही चुना जाता हर विषम परिस्थिति में
क्या उसका अलग अस्तित्व है जो यह दर्शाता है
की कैसे दुखों को भीतर छुपा कर भी गर्वित मुस्कुराता है
जीवन की हर पहेली को कैसे सुलझाता है
क्या उसका सूनापन है उसकी एकाग्रता है
क्या उसे अब अंदर से क्रियाशील होने पर भी निष्क्रिय रूप दिखाना है
पहाड़ों की तरह है
क्या उसे अब शीतल , स्थिरता और शालीनता को अपनाना है
क्या जीवन रुक जाता है
क्यों हम उसके रास्तों को पाषाणो से लाद देते हैं
उभरती जिंदगी को हम निराशा और शून्य से भर देते हैं
वसुधा भी पर्वतों पर सिंगार करती है उन्हें सुशोभित करती है
फिर क्यों हम नीरसता और,फीकेपन से इसे दंडित करते हैं
किन खोखले परंपराओं का हमको घमंड है
आओ पहल करें हम और इन कड़वे , मैले विचारों का खंडन हो
हिमालय तो अचल पर्वतों का राजा है
अभिरक्षक है और क्षत्रिय धर्म निभाता है
सरंक्षण , समर्पण और कर्म गति का देता आदेश
निर्भय हो आगे बढ़ो, क्यों ना दे हम भी दे यह संदेश
पहाड़ सा जीवन है तेरा , बुलंदी की पहचान
बेबस नहीं तू , बस अपने हौसलों की उड़ान को पहचान
मानव जन्म “रूही” एक मधुर साज है
पहाड़ सा जीवन तो, अब एक बुलंदी की आवाज़ है।
पहाड़ सा जीवन है तेरा , बुलंदी की पहचान
बेबस नहीं तू , बस अपने हौसलों की उड़ान को पहचान
वंदना ‘रूही’ खुराना
ग्रेट यारमथ, यूँ.के.
शहर
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पीड़ से चीखता, जा रहा है शहर।
खून है श्वेत क्यों, रिस रहा है शहर।
चाहतें, खेत-खलिहान सब हो हरे,
दे दुहाई मगर, रो रहा है शहर।
हर कोई तंग है, जंग स्वारथ की है,
तन्हा जीते हुए, मर रहा हे शहर।
कहने को तो सभी हैं, मनुज ही यहाँ ,
पर मनुजता कहाँ, सह रहा है शहर ।
ये चमन था कभी, खुशबूओं से खिला,
काँटों के झाड़ अब, चुभ रहा है शहर।
बागवां ही बना आज हैवान है,
जर्रा- जर्जर हुआ, घुट रहा है शहर।
अपने ही गाँव में, लुट रही है कली,
जंगली जानवर, हो रहा है शहर।
द्रौपदी है पुकारे, दुःशासन खड़े,
कान्हा को खोजता, फिर रहा है शहर।
खून के आँसू रोए, धरा और गगन,
हैरां ईश्वर खड़ा, कह रहा है शहर।
खूं की खेले थे होली, हुए थे फना,
अब कहाँ वो जवां, लुट रहा है शहर।
आग की बारिशें, हो रही है यहाँ,
तपते शोले पड़े, तप रहा है शहर।
ठंडी शीतल हवाएँ, बचालो हमें,
त्राण दो प्राण दो, जल रहा है शहर।
मेरे सारे ठिकाने, कहाँ खो गए,
रो रही भारती, खो रहा है शहर।
ये मनुजता की अन्तिम विदाई कलम,
है दनुजता बड़ी, लिख रहा है शहर।
‘इन्दु’ मेधों से खुद को लगा ढाँपने,
रोशनी की तलब, बुन रहा है शहर।
इंदु झुनझुनवाला, बैंगलुरु
हार मानूँगी नहीं मैं
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श्वासे॔ मेरी चलेगी जबतक, हार मानूँगी नहीं मैं।
छलता जीवन छलेगा कबतक, हार मानूँगी नहीं मैं।
राह पथरीली बड़ी है, काँटे डग-डग पर हैं बिखरे ,
लिपटे-रिसते बहते जाते, चुभते-चुभते भले ही सिहरे ।
आँखें पथरा गई हो मानो, नमी भले हरपल ही बसती।
ज्योति जलती रहेगी जबतक, हार मानूँगी नहीं मैं।
धूप-छाँव है सुख-दुख ये, मन को समझा लिया है मैंने,
जो मिले, कल बिछुडेंगे ही, तन को बहला लिया है मैंने।
दर्द दिल में भरा-भरा पर, प्यास हर पल वहाँ है रहती।
छलके प्याला प्रीत जबतक, हार मानूँगी नहीं मैं ।
जीने के हैं कई बहाने, मृत्यु ही बनता ठिकाना,
फूल मिलते धूल में ही, जिन्दगी का यही फसाना।
होगा कल क्या, क्यूँ मैं सोचूँ, मन में ढेरों आश पलती।
मिले नही जब तक किनारा, हार मानूँगी नहीं मैं।
इंदु झुनझुनवाला, बैंगलुरु
युद्ध
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युद्ध की जमीन पर
सौहार्द की खेती नहीं की
जा सकती कभी
नहीं उगाए जा सकते
प्रेम, स्नेह, कोमल एहसास
और ना ही उग सकतीं फसलें
गेहूँ, धान, अरहर, बूट की
नहीं उग सकतीं सब्जियाँ
ना ही जूही, चंपा, गुलाब, गेंदा
और तो और
नहीं उग पाता वह
थेथर का पादप भी,
जो हर कहीं ढीठ सा
उग आता है,
काटे नहीं कटता
मारे नहीं मरता
युद्घ की जमीन पर
उग आते हैं गोली-बारूद
तोपें, मिसाइलें, नफरत के बीज
हवा में लहराते फाइटर प्लेन
लहरों पे मचलते जंगी जहाज
शहीद हो जाने को
तैयार पूरी पलटन
युद्घ की जमीन पर
बस और बस
उगाया जा सकता है
तो एक उन्माद,
एक प्यास खून की,
एक भूख महत्वाकांक्षा की,
ना टूटनेवाली अदद
नफरत की खूनी दीवारें
और अपने-पराए के नाम से
जानी जानेवाली
अनगिनत लाशें !
-अनिता रश्मि
एक और युद्ध
भयभीत हैं ये भी और वे भी
क्रुद्ध हैं ये भी और वे भी
मान लो कि यही सही है अब तो
जो वह कह रहे हैं
कितने मरे और किस के मरे
फर्क नहीं पड़ता, सच तो यह है
कि मानवता का अपहरण हुआ
बाल खींचकर ले जाया गया
औरतों को नंगा किया गया
व्यभिचार हुआ उनके साथ
क्रूर अत्याचार हुआ
किसने किया कितनी बार किया
क्या फर्क पड़ता है
प्यार, इज्जत और मानवता
नहीं है तो बस नहीं है
बाहुबली और चालबाजों की
यह व्यापारी दुनिया
पैसों के साथ खड़ी है अब
आदर्शों और उसूलों पर नहीं
लूट-खसूट, जालसाजी और धोखाधड़ी
वैभव की कामना करती
भूखे नंगों के हाथ हथियार बेचती है
यह व्यापारी दुनिया
अगर तुम कुछ बदल नहीं सकते
तो मान लो कि बदल गई है दुनिया
भूखों और निर्बल के आंसू मत देखो
बच्चे जो बच्चे थे कल तक बच्चे नहीं रहे
बड़े हो गए हैं एक ही रात में
बन्दूक थामकर
इस कटती मरती दुनिया को देखकर
यूँ बिलखो मत,
मान लो कि दफन हो गई है मानवता
अंत की ओर बढ़ रहे हैं ये वहशी उन्मादी
शांति नहीं चाहिए इन्हें, तो बस नहीं ….
शैल अग्रवाल
जले ठूंठ पर…
——–
कल एक चिड़िया देखी थी
अपने खोए बच्चों को तलाशती
उनका इंतज़ार करती
वहीं नीचे एक बूढ़ा भी था
ध्वस्त घर और टूटी चारपाई से चिपका
चिड़िया की तरह ही सूनी आँखों से
अपनों की वापसी का इंतजार करता
पंक्ति बद्ध लाशें भी थीं वहीं
दफनाए जाने का इंतजार करतीं
बच्चे-बूढ़े वयस्क और औरत
किसकी किसी की खबर नही
किसी पर कोई रहम नही था
युद्ध है अहम् का, वहम का
और इसमें तो सौ खून भी माफ
भले ही अबोध और नादानों का ही सही
भूखे बिलखते अनाथ और बेघरों संग
अकेली और आँसू बहाती
कल एक चिड़िया देखी थी मैंने भी
जले ठूँठ पर
अपनों का इंतजार करती…
शैल अग्रवाल
इस विध्वंस में…
सही कौन, गलत कौन
फर्क ही नहीं
हारेगा कौन जीतेगा कौन
पता करने की जरूरत ही नहीं
क्या रुकेगा भी यह युद्ध कभी
सवाल ही निरर्थक
जब कोई जवाब ही नहीं
अशांत है मन., बेचैन है मन
कौन है जो रोक सके
धड़ल्ले से हो रहे अत्याचार को
निर्लज्ज पाशविक दोहन को
धर्म जाति और देश के नाम पर
प्रदर्शित ताना शाही को
अतिरेक इस अभिमान को
कटती-पिटती और मिटती
जब-जब मानवता
वादा किया था तुमने आने का
क्या फिर आओगे तुम
इन्हें बचाओगे
कहाँ उड़ गए वे सारे के सारे
शांति का संदेश देते कबूतर
उड़ाए गए थे जो झुंड के झुंड
लालच का यह घना कोहरा
निगल गया है क्या सारी संवेदना
उम्मीदें हमारी
दूसरे का दुःख तो अब दुःख ही नहीं
पड़ोसी की भूख वैसे भी
कब अपनी भूख रही है
अंधों की इस अँधेर नगरी में
सुरक्षित रहता है अगर अंधा
तो सुरक्षित ही तो सारी दुनिया
कैसे बुझे पर यह चिनगारी
राख कर दिया है जिसने
पूरा-का-पूरा बसा बसाया शहर…
अशांत है मन बेचैन है मन
क्या है अब भी कहीं
साहस , शौर्य और विवेक शेष
जो कर दे दूध का दूध
और पानी का पानी
सुना था
नियम कानून और संविधान
सभ्य समाज के हैं रक्षक उपकरण
विकसित समाज की असली पहचान
कानून जहाँ मात्र सर फोड़ने वाली
ताकतवर के हाथ की लाठी ही नहीं
सहारा है अपंगु असहाय का
फिर क्यों तोड़े मरोड़े जाते हैं कानून
सुविधा के लिए, स्वार्थ के लिए
लेन-देन की इस दुनिया में
छोटे-बड़े हजार मुनाफों के लिए
कौन दे रहा इस स्वार्थी मुनाफ़े को संरक्षण
या राजा कह दे तो सब ठीक
मंत्री भी कह देगा तुरंत- सब ठीक
संतरी भी कह देता है तब- सब ठीक
ढहा दिए जाते हैं बेवजह ही
हजारों के घर बमों से तुरंत तब
भूखा लटका मिला था कल फिर
हलकू किसान अपने ही खेत में
और हवलदार संत सिंह की
नन्ही लुटी नुची गुड़िया
गंदे पानी के नाले में
कहाँ हैं सहृदय वीर विवेकी
जिनके भरोसे घूमती रही है पृथ्वी
सौर मंडल सहित पूरा आकाश लिए
सूख जा रही क्यों अब डरती कांपती हुई
शैल अग्रवाल
नदी बह रही है,
जैसे गतिमय प्रवाह जीवन का।
लहरों सा क्रम,उठना और गिरना।
डूबना है या नदी के पार जाना है,
बैठ तट पर सोचती,
आंखो का सपना।
सबने अपने दांव खेले,
जीत है किसकी?
साथ सबका भ्रम है केवल,
साथ नहीं कोई भी।
आ फंसेगीं मछलियां किस जाल में,
यह भला है जानता कौन?
नदी बह रही है,और उम्मीदें भी।
पद्मा मिश्रा-जमशेदपुर
सूर्यास्त
हर सूर्यास्त अवसान नहीं होता
.न जीवन का.न मन का
.बस एक अंतराल है.समय का
.जैसे लहरों का उत्थान पतन.
जैसे दिन भर थककर सोया सूरज..
अंधेरे को चीरकर पुन: जागता सूरज.
कल का आकाश जगमगायेगा फिर.
आशा की किरणें फिर मुसकरायेंगी।
दोनो ही प्रकृति के सुंदर उपादान.
आदि और अंत.
. सूर्योदय और सूर्यास्त।
पद्मा मिश्रा.
एल आई जी-114,रो हाउस,,आर आई टी थाना के सामने
आदित्यपुर-2
जमशेदपुर -13,झारखंड
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