पुनः पुनः
कल फिर कोयल कूकी थी
मोर नाचा था पर जंगल में
किसी ने नहीं देखा
उन खूबसूरत फूलों का खिलना
और झर जाना, चमकते तारों का टूटना
धरती घूम रही है पुनः पुनः
और संग-संग हम सभी
अथक बहती नदियों को देखते
मरु को सींचते, ताप सोखते
वीराने सजाते, फूल खिलाते
और वे पहाड़ जो खड़े आज भी
अपनी ही जगह पर निर्भीक शांत
अविचलित और अडोल
चौकीदारी करते, प्रश्रय देते
जाने कितनों की,
सहभागिता है धरा पर जीवन में
मलय की भी नील गगन की भी
चींटी से लेकर हाथी तक
निर्बल और महान की
सब एक हैं अंत में राजा रंक
पर हमने कब कुछ समझा…
शैल अग्रवाल, यू.के.
साहित्य और समाज
साहित्य को समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए
यह न वह दर्पण बने जो झूठ भी हो, सत्य भी
जो दिखाएं रुप विकृत और जगत का छद्म भी
जो सहज ही कर्म पथ पर मार्ग निर्देशित करे,
स्नेह का दर्पण सहज अवलंब होना चाहिएं,,
साहित्य को समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए
प्यासी आंखों में जगे फिर रोशनी उम्मीद की
वह बने आरंभ करुणा,प्रेम का,विश्वास का
भावना, संवेदना हो, धर्म हो संस्कार का
हमारी लेखनी में शक्ति का अवलंब होना चाहिए
साहित्य को समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए
हम सृजन के सारथी, बस विश्व हित सर्जन करें
मां भारती की आरती में सुमन यह अर्पण करें
विश्व का कल्याण ही सद्धर्म होना चाहिए
साहित्य को समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए
भूख,हिंसा हों पराजित, इंसानियत की जीत हो
हम लिखें वह गीत,, बढ़ेजिससे ,,परस्पर प्रीत हो
विगत भी वंदितं रहे और हो भविष्यत का वरण
विजेता हो “आज”,यह संकल्प होना चाहिए
साहित्य को समाज का प्रतिबिंब होना चाहिए,
पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर. झारखंड
शब्दकोश में रखे शब्द
उदास औजारों की तरह
निष्क्रिय पड़े रहते — ज्यों ;
कारखाने के भीतर झांकती
अंधेरे में रेंगती
एक अचल संभावना ।
कौनसा पुर्जा कसा जाएगा
और यकायक लौट जायेगी
पृथ्वी की गुम मुस्कराहट
कौनसी भाषा जिसमे समा जाएंगे सारे चीत्कार
सुबह अभी कहाँ
और, बंद हैं दिशाएं
किस जीवन सरोकार में
डुबाया जायेगा कोरा जिस्म
किस रचना का आंचल भरेगा
कैसा कौनसा आदिम शब्द
किस बिम्ब को बींध बींध लाएगा
वह कौन सा बिरला शब्द
वह यह नहीं जानते
महज —;
बचाए रखते आत्मा का उजास
बावजूद इसके यह बोध जिन्दा रहता शिद्दत से
कि एक शब्द उठेगा धरती को चीरता हुआ
आकाश की ओर झुका झुका डाली की तरह
गाहे बगाहे उसे याद आता ठौर : बंधी जिससे
अपनी नियति : प्रारब्ध अपना
एक दिन –‘
टूटना है उसे जीवन के हक में सनसनी की तरह
और सन्नाटे को चीरकर
फिर किसी कविता की पंक्ति में
खिलना है धूप की तरह।
विजय सिंह नहाटा
ं
देश
देश नहीं है एक निश्चित
सीमाबद्ध भू – भाग का नाम
देश है
ऐसे जज्बे का नाम
जो इसकी मिट्टी लगने के बाद
हौसला देता है,
उत्सर्ग करने को प्राण।
जीवन भर जेल की यातना
सहने का नाम।
हँसते – हँसते फाँसी
चढ़ जाने का नाम
तन, मन और धन
न्योछावर करने का नाम।
संचार करने का नाम।
यह है हमारे गर्व और गुरूर का नाम।
स्वाभिमान और आत्मसम्मान का नाम।
सुख और समृद्धि का नाम।
सामाजिक सद्भावना का नाम।
एकता और भाई चारे का नाम।
एक ध्वज के नीचे
एकजुट हो जाने का नाम।
ओ ! मेरे देश !
बनाये रखना वह जज्बा
अदम्य साहस का
जो था स्वतंत्रता के योद्धाओं
के पास।
जिससे सदा सलामत रहे,
तुम्हारी आन, बान और शान।
सर ऊँचा रहे हमारा
और
समस्त विश्व में तुम जगमगाओ
नक्षत्रों में सूर्य समान।
ऊषा किरन शुक्ल
-रक्त
रक्त कभी पानी होता है
कभी उबलता है।
उसका यही स्वभाव
इतिहास की तकदीर बदलता है।
रक्त की बहती हैं नदियाँ
रोती हैं कितनी ही सदियाँ।
क्रोध के अंधे जूनून में
बहते हुये खून में,
कितनी गोद हुई खाली
कितनी उजड़ी माँग की लाली।
लालच और बदले की आग
दानवता जाती है जाग।
मानवता रोती रहती है
अपनी सन्तति खोती रहती है।
प्रगति ,विकास का होता नाश
टूटती कितनो की आस।
पर आज जरूरत है फिर से
नौजवान जागें फिर से।
आये फिर से लहू में उबाल
परिवर्तन की जले मशाल।
मिलकर सब आयें सारे
लौटायें सब मूल्य हमारे।
सभी भेद-भाव के मारे
फिर से सबका रक्त पुकारे।
काटें धर्म-जाति के बन्धन
करें सब मातृभूमि का वन्दन।
बढ़ायें अपने देश का मान
विश्व-गुरु भारत बने महान।
ऊषा किरन शुक्ल
पारिजात, 27 / 013,
कैलाशपुरी कालोनी, रानोपाली,
अयोध्या धाम,
(उत्तरप्रदेश) – 224001
समय का चक्र
समय ने ये कैसा चक्र घुमाया इस जहान में
सिखा दिया जीवन का सार इस दौरान में
कल तक उड़ते थे ऊँचे जीत के आसमान में
आज हार कर पड़े हैं हालातों के तूफ़ान में
कल तक दौड़ते थे तेज ज़िन्दगी के मैदान में
आज बैठे हैं क़ैद खुद अपने ही मकान में
समय ने ये कैसा चक्र घुमाया इस जहान में
भुला दिया भेदभाव आदमी का इस दरम्यान में
कल तक रहते थे तृप्त उन लज़ीज़ पकवान में
आज रोटी भी नहीं मयस्सर किसी दुकान में
कल तक रहते थे लिप्त अपने ही गुणगान में
आज बची हैं आस्था सिर्फ उसी भगवान में
समय ने ये कैसा चक्र घुमाया इस जहान में
दिखा दिया मृत्यु का भय इस अमूल्य जान में
कल तक इतराते थे दौलत के अभिमान में
आज ज़िन्दगी बची हैं सिर्फ ईश्वर के वरदान में
कल तक राज करते थे उस महल आलीशान में
आज नहीं हैं जगह एक मामूली से श्मशान में।
मनीष श्रीवास्तव
महत्त्व
भूत – भविष्य की चक्की में पिस रही ज़िन्दगी,
कौन समझता है- वर्तमान का महत्त्व
दुख – दर्द की कहानी बन जाए उपन्यास,
कौन समझता है – मुस्कान का महत्त्व
जमाने की खुशी हेतु जान दे दी उसने,
कौन समझता है यहां जान का महत्त्व,
पसीने की खुशबू से भी आती है बदबू
कौन समझता है- किसान का महत्त्व,
मुफ्त में मिली गीता सिसक रही कोने में,
कौन समझता है यहां ज्ञान का महत्त्व
ओह! मर गयी मानवता भौतिकता के पीछे,
कौन समझता है – ईमान का महत्त्व
‘सावन’! पावन है ज़िन्दगी जो मुफ्त में मिली,
कौन समझता है- जीवनदान का महत्त्व
स्नेह, सम्मान, सदाचार से सुसज्जित,
कौन समझता है- इन्सान का महत्त्व,
मुफ्त में मिले महत्त्व का समझना महत्त्व,
कौन समझता है जी! महत्त्व का महत्त्व
उतना ही देना, हो जितना महत्त्व
कहीं घट न जाए जी! महत्त्व का महत्त्व
सुनील चौरसिया ‘सावन’
स्नातकोत्तर शिक्षक, हिंदी
केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली, अरुणाचल प्रदेश
ग्राम- अमवा बाजार , पोस्ट- रामकोला , जिला -कुशीनगर, उत्तर प्रदेश।
..फिर भी हम जगतगुरू
आज जनतंत्र-धनतंत्र हो गया ,
सुजनतंत्र- स्वजनतंत्र हो गया।
लोकतंत्र-थोकतंत्र बन गया ,
रामराज्य अब दामराज्य हो गया।
यह प्रजातंत्र ,
चन्द लोगों के लिए मजातंत्र है ,
बाकी लोगों के लिए सजातंत्र।
सस्ती के साथ मस्ती चली गयी,
और लाइफ को फाइल खा गई।
मूल्यवृध्दि, शुल्कवृध्दि, करवृध्दि से
कष्टवृध्दि हो रहा है ।
अफसर अजगर के प्रतिरूप हो गए,
एक बार फुफकारकर,
सीधे निगल जाते हैं।
हड़ताल अब हर ताल हो गया ,
न जाने कब ताण्डव शुरू हो जाय।
भरपेट भोजन प्लेटभर हो गया,
गोरस का स्थान कोरस ने ले लिया।
प्रेम सट्टा बाजार का सौदा हो गया,
विद्युत स्विच की भाँति,
जब चाहो ऑन करो,
जब चाहो ऑफ
वह चरमकोटि से चर्मकोटि पर आ गया।
यहाँ भाषण की अधिकता है,
राशन की न्यूनता।
महादेव क्षीरसागर में गोते लगा रहे हैं,
कुपोषित बच्चे यमराज को गले लगा रहे हैं।
क्षुधामृत्यु-वृथामृत्यु हो गई।
फिर भी,
हम जगतगुरू हैं,
महान हैं,प्रगति पर हैं।
किसमत्ती चौरसिया ‘स्नेहा’
पीएचडी, हिन्दी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज।
ग्राम – कनेरी , पोस्ट- फूलपुर, जिला-आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।