कविता आज और अभीः झरते पात

सुंदर मृत्‍यु
जैसे किसी चित्र का हिस्‍सा हो जाना
एक दृश्‍य का बढ़कर समेट लेना दूसरे को
एक आलिंगन में थिर हो जाना देह का

सुंदर मृत्‍यु
स्‍वप्‍न देखते स्‍वप्‍न हो जाना

चिरकाल तक रात हो जाना
-सविता सिंह

जीने की आस में
काँपता रहा था वह
सूखा पत्ता डाल पर
जैसे तड़पी बहुत थी
कमरे में क़ैद मधुमक्खी
खुली हवा की आस में
बेचैन हो-होकर बार-बार
बन्द खिडकी के कांच पर
बावरी-सी ऊपर-नीचे दौड़ती
फिर रास्ता न पाकर टकराती
फिर फिर कर गिर जाती
जैसे हम फंस जाते हैं
इस मोह-माया में
उपक्रम जारी रहता
बेचैन आत्मा का
खिड़की खोल ने का
पर कुछ दिखता ही नहीं
अंधी आस में
अश्रुपूर्ण आंखों से देखा था
अंततः उलटी पड़ी थी
आत्मा शरीर से छूटी
पर उदास क्यों होना
लौटेगी यह भी
जैसे लौटेगा वह भी
लौटते तो सभी
नए शरीर में
जैसे मानव नित-नित
नए कपड़ों में
यही तो समझा रहे थे
कृष्ण भी हमें
उस दिन गीता में।
शैल अग्रवाल

पूछता है मन,
आज स्वयं से विवश,
अशक्त होकर,
बन्दी अपने तन का,
बन्दी जैसे परिवार का भी,,
क्यों जीना है अब मुझे,,?
सोचता हूँ
सारे कर्तव्य निभाए मैंने।
अब बूढ़ा हो गया हूँ,
अब किसी काम का नहीं।
काश! वृक्ष होता तो
छाया ही देता तब भी,
आकर बैठते कुछ परिन्दें,
धोसलें बनाते,
कुछ राही थककर
मेरी ठंडी छाँव में बैठते।
मैं आह्लादित,,
अपने होने के अर्थ को पा जाता,,,,,।

पर मैं,,
सबकुछ सौंपकर
अपनी सन्तानों को,
किसी काम का नहीं रहा,
ठूंठ की भाँति खड़ा,
कटकर गिर जाना चाहता हूँ,
या उखाड़ कर
फेंक दिए जाने का इन्तजार करूँ?

इंदु झुनझुनवाला


उम्र की साँझ में

सुनो
तुम्हारे पिंजर हुए हाथों की
चटकती नसों मे
मेरी भावनाएं
आज भी दौडती हैं
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियां
मेरे अनुभवों का ठिकाना है
आँखों के
इन स्याह घेरे मे
मेरी गलतिओं ने पनाह ली है
आंटे में
न जाने कितने बार
गूंधी हैं
तुमने बेबसियाँ
पर चूड़ियों की खनक में
आने न दी उदासी
उम्र की साँझ में
एक तुम ही उजाला हो
सुनो ,
मुझे
मुझसे पहले छोड़ के न जाना

-रचना श्रीवास्तव

अच्छा ही तो है…

चाहे जितना
सींचो सँवारो
या फिर कीमती
गुलदानों में
सजालो——-
जानती हूँ
क्षण-भँगुर
जीवन यह
इन्ही फूलों सा
खिलेगा
और झर जाएगा
और आज जो
झरता है
कल फिर शायद
उग भी आएगा
मत कहो मगर
फिर अब यह
शोक किस बात का–
अच्छा ही तो है
जो नाजुक इन
फूल-पत्तियों के पास
दो आँखें और
एक मन नहीं
देखे सुने जो
सारे सुख-दुख
जाने पहचाने
फिर रिश्तों में
जुड़-बट कर
ढूँढा करे उन्हे ही
उम्र-भर
और आंसुओं संग
झर-झरकर
एक दिन
मिट भी जाए—

-शैल अग्रवाल

कोई अधूरा पूरा नहीं होता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते

परंतु इस असमाप्त –
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया
इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूँ

मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए।

-विनोद कुमार शुक्ल

मरने में

मरने में मरने वाला ही नहीं मरता
उसके साथ मरते हैं
बहुत सारे लोग
थोड़ा-थोड़ा!

जैसे रोशनी के साथ
मरता है थोड़ा अंधेरा।
जैसे बादल के साथ
मरता है थोड़ा आकाश।
जैसे जल के साथ
मरती है थोड़ी सी प्यास।
जैसे आंसुओं के साथ
मरती है थोड़ी सी आग भी।
जैसे समुद्र के साथ
मरती है थोड़ी धरती।
जैसे शून्य के साथ
मरती है थोड़ी सी हवा।

उसी तरह
जीवन के साथ

थोड़ा-बहुत मृत्यु भी
मरती है।

इसीलिये मृत्य
जिजीविषा से
बहुत डरती है।

डा.कन्हैयालाल नंदन

बरसों बाद भी
बगीचे में बैठी चिड़िया की
एकटक आँखों में, उड़ते बादलों की
बनती बिगड़ती परछांई में
क्यारी में खिल आए
फूलों के मोहक रंगों में
तुम्हारी निरंतरता, तुम्हारा आभास
तुम्हारे संदेश तलाशता है मन
आजभी नहीं जानती, पर
उन्मन क्यों हूँ मैं उस सपने से
जिसमें पुरानी कार की बैटरी-सी
ऱखी थी पंक्तिबद्ध कई आत्माएँ
पुनः जीवित होने को कतारबद्ध
भगवान का घर था वह शायद
जा पहुँची थी जहाँ हवा के झोंके सी मैं भी
पहचान तो लिया था हमने तुमने
तुरंत ही एक-दूसरे को तब
पर कोई संवाद नहीं था हमारे बीच …
ना ही एक भी आँसू हर्ष या विषाद का
कितना कठोर था पर वह पल
क्या इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं माँ…
शैल अग्रवाल

रोपता हूँ बीज तुममें

रोपता हूँ बीज तुममें
कल्पतरु अब तुम उगाओ।

याद है (?)-
कल्पांत की वेला
भयावह,
हाथ मेरा थामकर तुमने कहा था;

सृष्टि का क्रम तो नहीं ऐसे थमेगा,
गर्भ में अपने
तुम्हें
धारण करूँगी मैं!
तुम मुझे ऋतुदान दो!

पर तभी आकाश फूटा,
हाथ में से हाथ छूटा,
हो गए हम दूर।

फिर तो न जाने
तुम कहाँ
औ’ मैं कहाँ!

बीज कुछ मैंने समेटे
एक मुट्ठी में,
एक हाथ में पौध धान की
कस कर थामी।
रहा तरता तब तक
जब तक
नहीं मिली वह
नाव काठ की
सींग-बँधी जो महा मत्स्य के।

तिरते-तिरते
किसी तरह से
नाव प्रलय के पार आ गई।
अंधकार ही अंधकार था।
नहीं मिलीं तुम।

रहा भटकता
कालरात्रि भर
लिए हाथ में
बीज,
धान की पौध साथ में।

शब्द बनकर गूँजती थीं तुम :

गर्भ में अपने
तुम्हें
धारण करूंगी मैं!
तुम मुझे ऋतुदान दो!

और तुमको खोजता मैं
आ गया इस लोक में।

मिल गई तुम
व्यग्र, व्याकुल,
स्वर्णगर्भा,
उर्वरा,
मृत्युंजया,
रस में नहाई
जोहती थीं राह मेरी।

उस फसल की याद आई
जल गई जो
बह गई जो
गल गई जो।

उस फसल की याद आई
भूमि को जिसने ग्रसा था
और जबड़ों बीच जिसके
वायु का गोलक फँसा था।

उस फसल की याद आई
हर नदी जिसने सुखाई,
पर्वतों की ठोस काया
रेत सी जिसने उडा़ई।

चाह की थी क्या कभी
वैसी फसल की
उस कल्प के
मनु ने अभागे?

अब उगानी है फसल
जो सृष्टि बनकर
लहलहाए
और भर दे
सब दिशाएँ
प्राणरक्षक वायुओं से।

हाँ, उगानी है फसल
संजीवनी की,
फिर प्रलय
जिससे न आए,
आज यह संकल्प लेकर
रोपता हूँ बीज तुममें।
कल्पतरु अब तुम उगाओ!

-ऋषभ देव शर्मा

अंत में चन्द क्षणिका

बेटों की मुस्कान के लिए
माँ टुकडों में बँट गयी,
ज़िन्दगी कट गयी!

माँ-बाप ने घर बनाया,
बहू-बेटे ने उन्हें
वृद्धाश्रम पहुँचाया!

माँ-बाप
बच्चों की हैसियत बनाते हैं,
और आजकल बच्चे
माँ-बाप को
उनकी हैसियत बताते हैं!

इधर हृदय-थाल में
रोली-कुमकुम-अक्षत है,
उधर दुर्घटना
और बहू का
हर सपना
क्षत-विक्षत है!

पाई-पाई जोड़कर
बाप ने
बेटे की हैसियत बनायी,
बड़े होकर बेटे ने
अरमानों पर
बिजली गिरायी!

कफ़न की क़ीमत
मुर्दे ही समझते हैं,
इसलिये
कफ़न के लिये
कभी नहीं लड़ते हैं!

जीवन और मौत में
महीन फ़र्क़ है,
देहरूपी लिबास में
यमरूपी ‘वर्क’ है!

शैलेश वीर
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