आकलनः देवयानी-लेखिका दीप्ति गुप्ता

अमन प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित डॉ.दीप्ति गुप्ता के उपन्यास की ‘भूमिका दो बार पढ़ी। मैं तो कला सौन्दर्य पर ही इतनी रीझ गयी कि भाव पक्ष ही भूल गयी। भूमिका में भाव व कला का अद्भुत संगम है। उपन्यास में भाव व विषय वस्तु ‘मुख्य केंद्र’ होती है, उनके व्यापक संदर्भ को दीप्ति जी ने अपनी समृद्ध भाषा-शैली से भूमिका के कुछ पन्नों में बड़ी खूबसूरती से पूंजीभूत कर दिया है। भूमिका की प्रथम पंक्ति सामाजिक, मानसिक, भावनात्मक झंझावातों से गुजरती नारी वेदना की अनन्त यात्रा के इतिहास, वर्तमान और भावी परिणिति को एक पंक्ति में समाहित करने की खूबी की परिचायक है। कुछ संदर्भ रचनाकार की सघन संवेदना और शैली का स्पर्श पाकर इतना रोमांचित कर देते हैं कि पाठक उसके आदि से अंत तक पढ़ने के सम्मोहन में मुक्त नहीं हो पाता है। नर-नारी के बीच प्रेम एक ऐसा दुःखांतिक सुख है कि इसे अनुभव किये बिना केवल परप्रत्यय से स्वीकार लेना और उस पर इतना गहन लिखना संभव नहीं लगता। मानव हृदय है, तो प्रेम के एहसास से धड़केगा ही। मीराबाई खुद अनुभव कर कह गयी – “जो मैं ऐसो जानती प्रीत किये दुःख होय, नगर ढिढोरो पीटती प्रीत न करियो कोय” ! लेकिन आज तक ऐसा देखा गया है कि एक ओर स्त्री प्रेम की वेदना से राख होती है, तो दूसरी ओर उससे जी उठती है। यही इस विषय वस्तु की शाश्वतता है ‌।
इस भूमिका में लज़ीज़ उर्दू और ललित हिन्दी का सम्मिलन इतना रसपूर्ण है कि कंठस्थ हो जाये ! ”भावों के नाज़ुक कतरे, सृजन की पीड़ा और आनंद की महीन रजत रेखा,” इस कायनात की मुखालिस हस्ती “औरत” के खुलूस पर, उसकी खूबसूरती और नज़ाकत पर, उसके यासो ग़म पर, बेपन्हा अज़ीयत और फ़ना होती उसकी शख्सियत’, ‘अल्फाज़ के नये लिबास’…… आदि ये सब शब्द जुबां पर ठहर जाते हैं।
उपन्यास के कुछ प्रारम्भिक पृष्ठ पढ़ते हुए एक विचार आया पुरुष की क्षमता और दुर्बलता, स्त्री की क्षमता और दुर्बलता से भिन्न है। जहाँ पुरुष दुर्बल है, वहीं स्त्री की शक्ति प्रकट होती है। पुरुष स्त्री का परित्याग कर अपना आनंद ऐश्वर्य पाता है, पर यह स्त्री ही है, जो परित्यक्त होकर भी पुरुष के कर्म की रक्षा करती है। देवयानी की ‘अम्मा’ (सास) स्त्री का यही रूप है, जो पति के द्वारा छोड़े गये कर्तव्य कर्म को अपनी शक्ति बनाकर, परिवार के लिए समर्पित रहीं, उन छोटे बच्चों के लिए, जिनकी पहचान, पिता का नाम था ! उस प्रेममयी, ममतामयी अम्मा का क्या गुनाह था कि उसके साथ विश्वासघात हुआ और पति ने परनारी से विवाह रचा लिया । कारण – पुरुष का चंचल और छलिया मन। देवयानी नायिका ने भी अपने जीवन-साथी मनु से इसी पुरुष-स्वभाव के चलते पीड़ा भोगी। पुरुष एक नही, अनेक स्त्रियों को पाना चाहता है और पाने के बाद उपजी ऊब से, उसे उस स्त्री को छोड़ते भी देर नहीं लगती। स्त्री प्राणहीन होने की हद तक आहत होती है, फिर भी छलने वाले का अनिष्ट नहीं चाहती, उसे सही राह पर लाना चाहती है। उसके साथ ही जीना-मरना चाहती है। अनादि काल से चले आ रहे ‘स्त्री और पुरुष सम्बन्ध’ का यह प्रगाढ़ भाव कि पुरुष वंचना देते नही थकता और स्त्री बार-बार छली जाकर भी उस वंचक पुरुष से, मानसिक एवं भावनात्मक स्तर पर अलग नहीं हो पाती, उसके भले की, शुभ की कामना करते नहीं थकती – यह वेदनामय उदात्त सत्य इस चिन्तन-मन्थनपरक उपन्यास में आदि से अंत तक तरंगायित है….रचा-बसा है।

नर-नारी संबंध अत्यंत निगूढ़ है। स्थूल को तो आसानी से देखा समझा जा सकता है, पर इतने सूक्ष्म विषय को तो सूक्ष्म दृष्टि और सूक्ष्म अनुभूतियां ही समझ पाती है। कविता, गीत, उपन्यास, कथा कहानी सबका धरातल यही है। सारा साहित्य इसी धुरी पर घूमता रहता है। अब तो अर्थशास्त्र व समाजशास्त्रीय व्याख्यायें भी नर-नारी संबंध पर केन्द्रित हो गयी हैं।
यह तो सनातन स्वीकृत सत्य है कि प्रकृति ने जीव सृष्टि को कायम रखने के लिए नर-नारी में काम-वासना जाग्रत की। स्त्री और पुरुष इसकी डोर से खिंचे और बंधे। तो क्या काम-वासना प्रजनन के लिए शारीरिक क्रिया मात्र है..? फिर मनुष्य और पशु में भेद कहाँ ! लेकिन मनुष्य और पशु भिन्न है। पशु केवल पेट के लिए खाता है और नग्न अवस्था में रहता है। लेकिन मनुष्य भोजन में स्वाद चाहता है और तरह-तरह के रूप-रंग पोशाक से बाह्य सौन्दर्य और विचार कला से मानसिक सौन्दर्य में वृद्धि करता है। उसकी काम भावना शरीर को ही नहीं मन व आत्मा को भी झंकृत करती है और इस मिलन से मनोल्लास भी होता है। प्रेम विवाह हो या परम्परागत विवाह – यह मिलन आनंद का चरमोत्कर्ष होता है। फिर इस संबंध में इतनी व्यथा, वेदना, टूटन और विच्छेद क्यों…?

प्रथम तो सर्वस्व समर्पण करने वाली स्त्री को प्रकृति ने ग्राहक बना दिया। वह अपना सर्वस्व देकर पुरुष से शिशु का बीज ग्रहण करती है और सृजन की पीड़ा में भी सुख महसूसती है। संतान के पालन पोषण का शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक भार उठाती है। पुरुष इस रूप में स्वछंद है क्योंकि उसका स्खलन सिद्ध प्राय नहीं होता, जबकि स्त्री के गर्भ में उसका स्थूल रूप विकसित होने लगता है। इस प्राकृतिक भेद ने स्त्री को नैतिकता, शुद्धता, पवित्रता, निष्ठा जैसे अनेक प्रतिबंधों, और वर्जनाओं से बांध दिया। पुरुष यहाँ भी अधिक सुरक्षित था क्योंकि बंद अंधेरे कमरे में किये कार्य का सिद्ध प्रमाण संभव नहीं था। उसकी इस कमजोरी, लेकिन सुरक्षित कर्म ने उसे जितना स्वछंद किया, वहीं स्त्री के प्रति शंकालु बना दिया। स्त्री की पवित्रता व एकांगिकता को बनाये में रखने के अधिकार बोध ने अहंकार का रुप ले लिया। वह उसकी सांसों पर भी अपना अधिकार समझने लगा। इस अहंकार ने तरह-तरह के तर्क रच दिये। स्त्री के जीवन को इतनी घुटन भरी वेदना में परिवर्तित कर दिया कि यह धीरे-धीरे सामाजिक समस्या बन गयी। नारी-मुक्ति आंदोलन हुए। शैक्षिक व आर्थिक स्वतंत्रता व समर्थता के लिए संघर्ष किये। विज्ञान के विकास ने संतानोत्पत्ति में नारी की इच्छा को मजबूत किया। आज की नारी देवयानी की सरल उदार, समर्पित अम्मा की तरह अपने उपेक्षा रूपी विष को मौन रह कर नहीं पीती है। शिक्षित और समर्थ देवयानी विद्रोह करती है और अपने पति से अलग होकर अपने अस्तित्व को बनाये रखने की क्षमता का बिगुल बजाती है। सामाजिक संदर्भों में यह उपन्यास नारी की दमित की गयी विशिष्टताओं, योग्यताओं, क्षमताओं को विस्तार प्रदान कर नारी सशक्तिकरण का संदेश देता है। उपन्यास दिखाता है कि सामाजिक वर्जनायें टूट रही है। स्त्री स्वतंत्र अस्तित्व की तरह सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम व समर्थ है।

विवाह से दो व्यक्ति प्रेमी व प्रेयसी के स्थान पर पति-पत्नी हो जाते हैं।एक दूसरे को उपलब्ध होने के कारण, भावोत्कर्ष का रोमांच और अनुभूति कमजोर हो जाती है। बढ़ते दायित्व के कारण हिसाब किताब,बजट, बच्चों का लालन-पालन,शिक्षा स्वास्थ्य के प्रश्न आने लगते हैं। सही जबाव व समाधान के अभाव में झगड़े मन-मुटाव होने लगता है। संक्षेप में प्रेम व आकर्षण का स्थान, वैचारिक टकराव ले लेता है और जीवन नीरसता की जकड़न में आ जाता है। इस ऊब से बाहर निकलने या अपनी तृषा की तृप्ति के लिए पुरुष नये प्रेम में खुद को खो देना चाहता है।
स्थूल पर ही रुक जाना, नवीनता के लिए स्त्री को भोग वस्तु की तरह प्रयोग करना पुरुष के अहं और प्रेम का सबसे निकृष्ट व हीन रूप है।

अपने निर्मल सम्मोहन में बाँधने वाला यह उपन्यास मैंने बड़े चाव के साथ आद्योपान्त पढ़ा । भूमिका की तरह समूचे उपन्यास की भाषा बहुत समृद्ध व सरस है। भाव व विषय के अनुरुप भाषा में भावातिरेक भी है और ज्ञान का गाम्भीर्य भी, पर उसमें शुष्कता नही है। उपन्यास के उत्तरार्ध में नायिका-नायक की दैनिक चर्या, शारीरिक भंगिमायें और भावनात्मक आह्लाद की अभिव्यक्ति जितनी भावना से सराबोर, संयोग श्रृंगार के रस से ओत प्रोत भाषा में वह किसी किशोरावस्था के प्रेमी प्रेमिका के प्रथम मिलन की रसानुभूति पाठक को सिक्त करती है। वहीं दार्शनिक विषय चर्चा, नायिका देवयानी के कोमल और भावुक व्यक्तित्व से इतर, उसके प्रबुद्ध व्यक्तित्व का परिचय देती है। देवयानी के व्यक्तित्व के दोनों ही पक्ष सशक्त है और दूसरों को प्रभावित व चकित करते हैं।

उपन्यास में प्रकृति वर्णन बहुत मनभावन और चित्रात्मक है। वनों की हरियाली, पर्वतों का अवाक सौन्दर्य, प्रकृति में गूंजती संगीत की लहरी प्रकृति के सुखद आंचल का एहसास कराती है।

‘पारदर्शी’ अध्याय का अंत जहाँ हुआ है, वह अगर, उससे बहुत पहले होता तो शायद बेहतर रहता, ऐसा मेरा सोचना है। लेकिन लेखिका और अन्य पाठकों को शायद ऐसा न लगे और अन्त एकदम वो ही बेहतर और सहज लगे, जो कि उपन्यास में दिखाया गया है । अक्सर पूर्वाभास पारदर्शी इंसानों में ईश्वरीय वरदान की तरह पाया जाता है। लेखिका ने सही लिखा है कि मन की शक्तियाँ अद्भुत होती हैं, लेकिन, आमतौर पर लोग उन पर ध्यान नहीं देते और दिमाग की अधिक सुनते हैं। यह अध्याय सोचने को मजबूर करता है और मन की शक्तियों पर केंद्रित होने का सही सन्देश देता है।

पाठक की दृष्टि व सोच अनेक बार रचनाकार से भिन्न होती है।यही उस रचना की खूबी होती है कि वह कई दृष्टिकोण से देखी व समझी जा सकती है।
उपन्यास का प्रारम्भ और अन्त बहुत सुन्दर व सुघड़ है ‌‌। पारिवारिक परिवेश स्नेह और संबंधों की गर्माहट से जीवन्त रहता है। मानवीय मूल्यों ने परिवार की सेवा में लगे हुए लोगों को भी इस परिवार के, सदस्य का दर्जा दिया है। ‘रूह से रूह के मरासिम’ अध्याय इसका प्रमाण है। बच्चों के व्यवहार व संबोधनो में भी यह सदा बना रहता है। बच्चों की किलकारियां, उदास चेहरे पर भी मुस्कान बिखरने वाली भोली शरारतें, प्रकृति के सौंदर्य को अपने सौन्दर्य बोध से और आकर्षक आकार देने वाली अभिरुचियों के इस समृद्ध परिवार की स्नेह छाया में देवयानी और मनुज का प्रेम परवान चढ़ता है, पर, दो दशक बाद रेत की तरह ढहने लगता है। ‌
मनु व देवयानी के बीच प्रेम बंधन उनकी अभिरुचियों की समानता से और प्रगाढ़ हुआ। देवयानी सहित पूरा परिवार संगीत प्रेमी, लोकप्रिय गायक,वादक, चित्रकला का रंगों भरा संसार, साहित्य प्रेम …क्या नहीं था जीवन में उल्लास और ऊर्जा से आवृत !
वयस्क होते ही विवाह करने के बाद भी पढने की अभिरुचि वाली देवयानी ने अपना अध्ययन जारी रखा और कुछ वर्ष बाद शिक्षा क्षेत्र में प्रोफैसर का कार्यभार संभाला । सब कुछ मनोवांछित होने व पाने और कुछ वर्षों के वैवाहिक सुख के बाद अचानक क्या हुआ कि दोनों अलग हो गये। इस विच्छेद की पृष्ठभूमि में जिस ऐना की उपस्थिति थी, वह क्यों और कैसे हुई ? क्या मनु अपनी मनचाही पत्नी देवयानी की काबिलियत और अनेक गुणों को लेकर, जिन पर वो कभी मोहित हुआ करता था, उनकी वज़ह से कुण्ठित महसूस करने लगा था ? या फिर, क्या मनुज की चारित्रिक शिथिलता के कारण दूसरी स्त्री जीवन में आई ? क्या मनु के अंदर के कलाकार की बेचैन तृषा के कारण ऐसा हुआ ? भरे पूरे जीवन को छोड़, आश्रम में चले जाने के हालात कैसे बने ? आगे चलकर इन सारे सवालों के जवाब भी लेखिका की सधी कलम से, धीरे-धीरे पाठक़ के सामने उभर कर आते है।
लेखिका ने पुरुष-प्रवृत्ति की बहुत सटीक व्याख्या की है। वह लिखती है कि देवयानी ने किताबों में पढ़ा था और माँ से भी सुना था कि पुरुष परनारी-देह का बड़ा लोभी होता है। अपनी पत्नी कैसी भी उर्वशी, मेनका जैसी रूपवती और प्यार-ख्याल करने वाली क्यों न हो, पर ,पराई औरत उसे बड़ी भाती है। लेखिका एन्थ्रोपॉलोजिस्ट ‘डॉ हेलेन फ़िशर’ की किताब “व्हाय वी लव’’ (why we Love ) के मनोवैज्ञानिक तथ्यों के हवाले से बताती है कि इंसान के अन्त:करण में प्रेम के तीन धरातल मौजूद होते है – भावनात्मक, वासनात्मक और रागात्मक । जिस पुरुष में, ये तीनों धरातल सक्रिय होते हैं, वह एक समय में एक से अधिक लोगों से सम्बन्ध बनाता है। ऐसा करे बिना वह रह ही नहीं सकता। ऐसा व्यक्ति तीनों स्तर पर अलग-अलग लोगों से रिश्ते क़ायम करता रहता है। व्यक्ति का मस्तिष्क इन तीनों मनोभावों के पीछे दौड़ता है। ये तीनों वांछाएँ, “टेन्डम” यानी एक के बाद एक के क्रम में संचालित नहीं होती, अपितु उनकी पूर्ति, व्यक्ति अलग-अलग प्रेमिकाओं में खोजता है। इस तरह एक ही समय में उसके एक से अधिक स्त्रियों से प्रेम सम्बम्ध कायम रहते हैं। किसी से भावनात्मक, तो किसी से सिर्फ़ शारीरिक और कुछ से सामान्य रागात्मक लगाव।
देवयानी सोचती है कि पुरुष कुंठा घर में मनचाही पत्नी होते हुए भी, उसे घर से बाहर इधर-उधर देह-सुख बटोरने को लालायित करती है। क्या यही उसका पुरुषत्व है ? विवाह के समय अग्नि के सामने लिए सात वचनों का निर्वहन है ? उस क्षण, मनु का प्यार देवयानी को किशोरावास्था का इन्फेचुएशन नज़र आता है।
देवयानी के श्वसुर ने भी तो देवयानी की निर्दोष सास के साथ कई वर्ष पहले ऐसा ही किया था। उस सुशिक्षित,गुणी और वफादार अम्मा का दोष इतना था कि वो अपने पति पर अंधा विश्वास करती थी। प्रेम में अपने साथी पर भरोसा करने वाले के साथ, छल-कपट करने के सन्दर्भ में दीप्ति जी ने एक बेहद मार्मिक उक्ति का उल्लेख किया है, जिसे पढकर आँखें छलछला आती है__
‘अंकमारुह्य सुप्तानाम् वंचनम् कि विदग्धात……‘ जो अपनी सुरक्षा के लिए आप पर भरोसा करके, स्वयं आपकी गोद में आकर खुद सो गया हो, उसे छलने में, उस निरीह को आहत करने और मार डालने में कौन सा कौशल है ?’

लेकिन पुरुष का दम्भ, आत्ममुग्धता, एकाधिकार का कुण्ठित स्वभाव उसे स्त्री के साथ छल-कपट करने को प्रेरित करता ही है – चाहे वह पौराणिक श्रद्धा को अकारण ही त्यागने वाला उसका प्रेमी ‘मनु’ हो या, देवयानी उपन्यास का नायक हो ।
उपन्यास में नायिका देवयानी का दर्शन ज्ञान, पाश्चात्य संस्कृति, विचार, विचारकों पर चर्चा उसके बौद्धिक समझ का अद्भुत परिचायक है। चार दीवारों से बाहर की दुनिया में उसे ऐसे पुरुष भी मिले होंगे,जिनके विचारों ने उसे प्रभावित किया हो और ऐसे भी जिनकी पाशविक दुर्बलतायें और उनके हाव-भाव आचरण में उन दुर्बलताओं की झलक आती होंगी। अच्छे दाम्पत्य को ईर्ष्या ,शंका, भय की बड़ी चुनौती होती है। कथानक में देवयानी ने जीवन में ऐसी किसी चुनौती से उपजी समस्या मनु के सामने नहीं राखी । घर की चारदीवारी से बाहर निकली स्त्री को अपने शारीरिक एवं मानसिक सौन्दर्य के असंख्य प्रशंसक मिलते हैं, पर इसके कारण देवयानी ने कभी मनु की उपेक्षा नहीं की। स्त्री के चरित्र का यह आयाम इस उपन्यास में मुखर है।
मनुज के संबंध पर पूरा परिवार देवयानी के साथ था, उसे वही स्नेह व सुरक्षा पूर्ववत मिलती रही…परित्यक्त सास ने जैसे अपने बच्चे अपने संरक्षण में रखे थे, वैसे ही, तलाक होने पर भी, देवयानी के बच्चों को भी अपने स्नेह से सींचा। देवयानी अकेली नहीं थी, सद्भाव व सहयोग, भावनात्मक शक्ति उसके साथ थी। उसे इस विच्छेद की अगली संभावनाओं से बच्चों को और स्वयं को बचाना था। मुझे खलील जिब्रान की विवाह पर एक दो सूक्ति है, जो मुझे याद आ रही हैं – वे बहुत महत्वपूर्ण है__
“एक शराब पियो, मगर एक ही प्याले से मत पियो” ! दोनों पास पास रहो, मगर इतनी दूरी तब भी रहने दो कि तुम दोनों के बीच स्वर्ग की वायु आसानी से आ जा सके।”

वस्तुत: तनाव तब आ जाता है, जब पति पत्नी दोनों ही इन सूक्तियों को अपने लिए ही दलील के रूप में लेने लगते हैं। जब स्व का मोह बहुत उग्र हो जाये और उसकी परिधि बहुत संकीर्ण, तो रास्ते में कांटे आते ही है।

कुल मिलाकर उपन्यास पाठक को मन को आदि से अन्त तक अपने से बाँधे रखता है और जीवन की सुंदर व्याख्याएं, उतार-चढाव, पतझड़-बसंत, सुख-दुःख के महत्वपूर्ण आयाम शिद्दत के साथ प्रस्तुत करता हैं, जो मन पर अमिट छाप छोडते हैं। देवयानी हर अध्याय की धुरी है, जिसके माध्यम से कभी परोक्ष, तो कभी अपरोक्ष रूप से उदात्त संदेश मिलते है। यदि मैं कहूँ कि यह उपन्यास साहित्य जगत को समृद्ध बनाने वाला अविस्मरणीय सृजन है, तो अत्युक्ति न होगी ।


डॉ.सुनीता शर्मा
पूर्व प्रोफ़ेसर, अंग्रेजी विभाग
वर्धमान कॉलिज, बिजनौर (उ.प्र.)
मोबाइल : 81929 72257

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