खुजराहो…
अहा…! अहा…! अहा…!
यह कौन शिल्पकार है…?
जिसने निष्प्राण पाषाणों में प्राण फूँक कर कहा- “आओ इधर आओ तुम्हें प्रेम में ढाल दूँ। निस्सीम जलधि तरंगों से प्रणय सूत्र में बाँध दूँ। आओ कि तुम्हे प्रेमी बना दूँ; प्रेयसी बना दूँ। यह क्या कि पाषाण होकर पथ पर पड़े प्रतीक्षा करो किसी की। आओ कि तुम्हें भावनाओं से भर दूँ कि तुम्हारी प्रेयसी की नूपुर झंकारों से सदियाँ गूँज उठें। व्योम मुग्ध हो जाए। कनक प्रतिमाएँ भी इन पाषण मूर्तियों के समक्ष शीश झुका दें।
इस प्रेमाभिव्यक्ति के सत्य-सुरों के साथ उन अनाम कलाकारों ने अपना तप आरंभ किया जिन्होनें मानवीय कल्पनाओं को साकार कर इंद्रप्रस्थ को पुनर्जीवित किया। स्थापत्य के महान साम्राज्य के जो धरा-धरेंद्र बने और जिन्होने ईश्वर के समक्ष यह उपमान छोड़ा कि ‘देखो पालनहार तुम सृजनकर्ता हो, रचियता हो तो मेरी यह रचना भी कोई कम नहीं।’ ऐसे अनजान शिल्पियों के वरदान हैं, विश्व धरोहर के अद्भुत आश्चर्य। क्या इनका स्मरण पुण्य नहीं…? क्या इनका श्रम, प्रेम-स्नेह-सम्मान से विरत रहेगा…? क्या समय के महान रथ पर इनके लिए कोई स्थान नहीं…? क्या लोक वाणी पर इनका कोई अधिकार नहीं…? उस कौशल के प्रति हम संज्ञा शून्य हो जाएँ…! क्या यह उचित होगा…? न-न, कदापि नहीं।
खजुराहो प्रवेश के चातुर्दिक मार्ग संगम पर ऐसे अनाम शिल्पकारों को समर्पित पाषाण प्रतिमा उतनी ही दर्शनीय है जितने इस संस्कृति समृद्ध नगर के भव्य महालय। इस मूर्ति में दर्शया गया है कि एक कलाकार छैनी-हथौड़ी से पत्थर को रूप दे रहा है। इस कृति को निर्मित करने वाले कलाकार को भी नमन। क्या रूप निखारा है इसने! क्या आश्चर्य कि वह उसी युग के किसी कला सिद्ध का अंश हो।
मुझे जो बहुत प्रभावी लगा वह इसके नेत्रों का लक्ष्य संधान भाव है कि कैसे शिल्पी सब भुलाकर प्रस्तर पर उभार देता है वह क्षण जो कभी-कहीं सजीव थे किसी तरुणी-तरुण के प्रेम की अभिव्यक्ति रूप में या किसी राज्यसभा का दृश्य या रंगशाला में कोई मनलोभनी नृत्यरता सुंदरी कटक मुद्रा में हो या तरुण द्वारा रमणीय रमणी शृंगार कि अभी बहेगा प्रेमरस और सर्वस्व छा जाएगा आलिंगित कोमल पल। सिद्ध शिल्पकारों के स्पर्श से कठोर शिला में भी आभूषण दमक उठते हैं, वस्त्रों की बारीक काट दिखती है, चुन्नटें तक स्पष्ट समझ आतीं हैं।
सत्य-सत्य-सत्य…! कोटिशः नमन है उन अनाम कलाकारों को। साथ ही नमन है उस घराने को जिसने पाषणों को जीवित करने वालों के सम्मान में यह प्रतिमा बनवाई और उस पर लिखा, ‘खजुराहो के निडर कलाधर अमर शिला में गान तुम्हारा।’ हाँ-हाँ! उन श्रमिकों को भी करबद्ध नमन जिन्होंने इन विशाल शिलाओं को ढोया, उठाया और एक स्थान से दूसरे स्थान स्थान्तरित किया।
यह बताना आवश्यक जान पड़ता है कि मुस्लिमोत्तर भारत के वास्तुशिल्प की प्रमुखतः तीन शैलियाँ हैं : नागर शैली, वेसर शैली और द्रविड़ शैली। खजुराहो, नागर का अप्रितम उद्धरण है। प्राचीन भारत में शिल्पकला के सर्वाधिक प्रसिद्ध कुल- गंधार, मथुरा और अमरावती रहे हैं। नागर शैली के वह अनेक-अनेक निर्माता जिन्होंने अपना सर्वस्व खजुराहो को तराशने में लगा दिया वे मथुरा विद्यालय के शिल्पकार थे। मथुरा विद्यालय में मूर्तियों के उभय पक्ष तराश के गढ़े जाते थे; स्थापत्य की पराकाष्ठा है यहाँ। रत्नगर्भा की क्रोड़ पर मर्मर-महालय की दमकती दृश्यावली। पुष्प-लतिकाओं, धूप-दीप से सुसज्जित यहाँ के मंदिर सभी के लिए खुले रहते। कितने लोग प्रतिदिन भोजन पाते, कितने आश्रय। चंदेल राजवंश के न्याय, प्रशासन, कला, संस्कृति संरक्षण के प्रयासों से भारत भूमि गौरवान्वित हुई है।
राजाओं ने, बादशाहों ने, नवाबों ने, जागीरदारों ने, सामंतों ने आदेश दिए और निर्मित हो गए सुंदर वास्तुकला के अप्रितम सदन, मंदिरों के रूप में; किलों के रूप में; महल के रूप में; मीनारों के रूप में; गुंबदों के रूप में; स्तंभों के रूप में। इनकी कारीगिरी, पत्थरों को तराशने की कला आज वर्ड हैरिटेज साइट बन, सरकारी आय का महत्वपूर्ण माध्यम है। न जाने कितने लोगों को रोज़गार दिया है इन निर्जीव पत्थरों की सजीव कारीगिरी ने।
इतिहास साक्षी है कि वर्षों के अथक टक-टक…! ठन-ठन…! घर्र-घर्र…! स्वरों के मध्य, भूमि पर गिरे सहस्त्रों अनाम शिल्पियों के श्रमसीकर इस धरा को पवित्र कर गए हैं। ऐसा कहने में मुझे कोई संकोच नहीं और न ही यह अतिशयोक्ति है। यह वह कटुसत्य है जिसे कोई माने-न-माने; परंतु समय स्वयं नत मस्तक है।
दिन-दोपहरी-तिपहरी-रात्री इधर स्वेद से भीगे तन कठोर पत्थरों को रूप दे रहे थे तो उधर संभवतः आंनद, विलास में लिप्त न जाने कितने सुरा पात्र रिक्त हो लुढ़क रहे होंगे प्रासादों में। हाँ, उस क्षण का साक्षी काल है जो अपनी गति से कभी विचलित नहीं होता; परंतु वर्तमान को अवसर देता है भूत की व्यथा-कथा सुनने-सुनाने-समझने का।
पीढ़ियों ने जब अपना स्वेद, रक्त में मिला के मानवीय सोच को आकार दिया तब जा कर वास्तुशिल्प के यह गगनचुम्बी सुंदर उदाहरण हमारे दृष्टि सम्मुख हुए। न जाने कितनी भावनाएँ; कितने प्रेम; कितना आनंद; कितने सुख, कितने कष्ट; इन मौन प्राचीरों, मूर्तियों और कलाकृतियों ने देखा होगा। वह सब समय मार्ग में चल के आज सुषुप्त हैं, पर बीते समय का सत्य-तो-सत्य है, भले वह आज अदृश्य ही सही। यदि मन के भावों से सुने तो अवश्य सुनाई देगी उनकी मौन-धड़कनें।
खजुराहो के मंदिर विश्व में भारतीय कौशल के परचम को ऊँचा कर रहे हैं। क्या सुंदर पत्थर की कटिंग है! कहीं पत्थर की जाली, कहीं ठोस पाषाणी सीढियाँ, कहीं समानुपात में कटे लच्छेदार गुम्बद आधार- अमालक (आमलक), एक ओर बड़ी विशाल प्रतिमाएँ तो दूसरी ओर लघु आकृति में राजा की सेना का वर्णन, भजन-कीर्तन करती टोली या किसी बारात का चित्रण। सभी की नक़्क़ाशी देखने योग्य है। इन मंदिरों में शार्दूल प्रतिमा भिन्न-भिन्न रूप में दिखी। यह शिखर पर भी आरूढ़ है और मंदिर की दीवारों में भी। कहीं गज मुखी तो कहीं अश्व मुखी। कहीं मतंग ग्रास मुद्रा तो कहीं शूकर आहार। शिव, विष्णु, गणेश इत्यादि देवों की अति सुंदर कलाकृतियाँ हैं यहाँ।
कहीं शृंगार करती नायिका, कहीं काजल लगाती स्त्री, कहीं सखियों की अटखेलियाँ तो कहीं प्रेमालाप, वह चंचल नीलमणि-सी किशोरी, घुँघराले कुंतल में फँसे तामरस पुष्प, कंठ में स्वर्ण हार, लटकते कर्ण फूल, सुडौल भुजाओं में कसे भुजबंध, संपुष्ट देह, बारीक कारीगिरी वाली करधन से द्विगुणित आकर्षक होता कटि प्रदेश, हृदयों पर आघात करते मृग-से नयन, अग्निज्योत-से ओष्ठ और हाँ पग मोड़ कर कंटक निकलती सद्य: यौवना और ऐसी अनेक सुंदरियों की मूर्तियों के साथ भुजबल रूप में तराशी नायक मूर्तियों की मुख भंगिमा भी असदृश्य है। कोण-कोण में अनुपम स्थापत्य सौंदर्य है। सच! यहाँ के सभी मंदिर धरणीधर तुल्य, उत्तरोत्तर उन्नत प्रधान शिखर और उरू शिखर, दृश्य को आश्चर्य में डालने वाले हैं।
काम कलाकृतियों के लिए विश्वप्रसिद्ध खजुराहो साक्ष्य है इस बात का कि पुरामानव का मानसिक स्तर वर्तमान समाज से कहीं ऊँचा और स्वच्छ था। काम मुद्राओं का सार्वजनिक चित्रण किसी दूषित मानसिकता का परिणाम न था, अपितु यह तंत्र साधना से संबंधित प्रस्तुति थी। गाइड पंकज जैन कहते हैं, “यहाँ चौसठ योगिनी मंदिर के भग्नावशेष बताते हैं कि खजुराहो तंत्र साधना का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा और वृह्द तांत्रिक क्रियाओं में काम-कला का समायोजन स्वीकार्य क्रिया है।”
मुझे स्मरण है, तंत्र-साधना नामक एक पुस्तक में मैने छिन्नमस्तिका साधना की मूर्ति के नीचे स्त्री-पुरुष मिलन चित्र देखा है। ऐसे में जो पर्यटक संकीर्ण मनोभावों से इन निर्माणों को देखते हैं वह त्रुटि पूर्ण है। वैसे, लोकमान्यताओं में भाँती-भाँती के कारण छिपे हैं; जैसे- यामिनी अर्थात बिजली को कुँवारी माना है और मान्यता है कि इन काम कृतियों को देख वह लजा कर यहाँ कभी न गिरेगी इसीलिए ये मूर्तियाँ बनी हैं। जैन और बौद्ध प्रभाव के कारण ब्रह्मचर्य की अति को दूर करने के लिए इन बोलते चित्रों का निर्माण किया गया था। भव्य मंदिरों को बुरी दृष्टि से बचाने के लिए डिठौना रूप में इन्हें बनाया गया था आदि-आदि। जितने मुख उतनी ही बातें।
इन सभी पवित्र प्रांगणो का निर्माण 9वीं-से-11वीं शताब्दी के मध्य चंदेल राजवंशियों ने करवाया था। भूमि (जगती) से लगभग 12-से-15 फ़ीट ऊँचाई पर विशाल वर्गाकार चबूतरे पर भव्य मंदिर बनें हैं जबकि मंदिरों की सीढियाँ एक बित्ता दो अंगुल की हैं जिससे मंदिरों की ऊँचाई और बढ़ गई है।प्रवेश-सीढ़ीयों पर पद्म-शंख स्वयं में अलग प्रस्तुति है। मंदिर प्रवेश में मकर तोरण, स्वागत करती अप्सराएँ, अर्ध मंडप में वाद्य यंत्र बजाने वाले और गायकों के बैठने की व्यवस्थाएँ। मंदिर के अंदर महा मंडप में यज्ञ तथा नृत्य खण्ड, आंतरिक प्रदक्षिणा पथ सभी मंदिरों में देखने मिलता है। यह पथ केवल चित्रगुप्त मंदिर में नहीं है क्यों कि इस मंदिर में निरंसार शैली की प्रस्तुति है। मंदिर प्राचीरों पर मुझे जिस कला ने बहुत प्रभावित किया वह आरोहनम् मार्तण्डस एवं पतनम् मार्तण्डस के प्रतीक हैं। यह खजुराहो का शैलीय गुण है और साक्ष्य है कि सनातन परंपरा सूर्योदय और सूर्यास्त दोनो को पूजती है; जैसे- छट पूजा में किया जाता है।
सदी परिवर्तन पश्च्यात् भी इनके निर्माण कौशल की एकरूपता में तनिक भी अंतर नहीं आया। मुख्य मंदिर क्षेत्र के साथ-साथ खजुराहो के आस-पास के मंदिर भी स्थापत्य विज्ञान के अलग उदाहरण हैं; जैसे- उसी काल में निर्मित सरोवरों के समीप स्थित ब्रह्मा मंदिर, वामन मंदिर, जावेरी मंदिर, जैन मंदिर, दूल्हा देव मंदिर एवं मातंगेश्वर महादेव मंदिर इत्यादि।
खजुराहो मूलतः प्रकृति की चित्रकारी का स्थल है। यदि मेरी बात पर संदेह हो तो आप स्वयं स्थल परीक्षण कर सकते हैं या गूगल की सहायता ले सकते हैं। रनेह फॉल, अभ्यारण्ड सीमा में स्थित सृष्टि का वह उपहार है जो बिरला देखने मिलता है। कभी ज्वालामुखी ने अपना मुख खोला था यहाँ जिसके साक्ष्य आज भी स्मरण कराते हैं कि समय-प्राचीर के पार्श्व में कभी यह घटना सजीव थी। गाइड महोदय ने बताया कि यह एशिया का एकमात्र वॉलकेनो गार्ज है जिसे देखने दूर-दूर से देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। इग्नीअस चट्टानों के भंडार हैं यहाँ, जिसमें बैसाल्ट (काला), ग्रेनाइट (गुलाबी), कवर्ट्स (सफ़ेद), जैसफ़र (लाल) और डोलोमाइट (पीली) चट्टानें स्पष्ट दिखतीं हैं।
वाह रे आधुनिक विकास! जहाँ लाभ-लोभ दिखा वहीं खुदाई आरंभ। सौभाग्य है कि अस्सी के दशक में यह पूरा क्षेत्र वन संरक्षण के अधीन आ गया, अन्यथा लोभ के हथोड़े यहाँ भी चल जाते और ग्रेनाइट के उत्कृष्ट उदाहरण अब तक खोद लिए जाते। ग्रेनाइट के प्रति लोक-लालच इसलिए बढ़ रहा है क्यों कि इसका क्षरण बहुत धीमे है। प्राकृतिक मार के मध्य भी यह सहस्त्रों वर्ष में कुछ मिली मीटर घिसता है।
यहाँ के सघन वनों से उच्च-भ्रू महानुभावों ने 1960 में अंतिम बाघ की हत्या कर अपनी पीठ ख़ूब थप-थपाई। अभी भी कोंदार आदिवासी यहाँ रहते हैं और याद करते हैं बीते समय की वन-समृद्धता। पर्यटकों ने भी ख़ूब नियम विरोधी कृत्य किए, जो कटु-स्मरण के रूप उन 16 गाइडों को चौकन्ना रखते हैं जो मनसमझाऊ अल्पाय पर वर्षों से सेवारत हैं।
इसी प्रकार पांडव फॉल भी दर्शनीय है। यहाँ भी लोक कथाएँ घूम-फिर के पांडव अज्ञात वास से जुड़तीं हैं। विपर्यस्त अथवा असंबद्ध ऐतिहासिक घटनाओं का घिसा-पिटा ताना-बाना। हाँ, हृदय की आकृति वाले इस अति सुंदर जल प्रपात के दो सत्य निश्चित ही प्रणम्य हैं। प्रथम, यह राजवंशों के चिकित्सा अनुसंधान का केंद्र था। हृदय रोग की दवा का वृक्ष टरमेलिया अर्जुना जिसे स्थानीय भाषा में कोहा कहते हैं की उपस्थिति इसका साक्ष्य है। द्वितीय, 1929 में भारतीय स्वतंत्रता के महानायक चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ ने क्रांतिकारियों के साथ यहाँ गुप्त मंत्रणा करी थी। आज भी लोग यहाँ स्मरण दिवस मनाते हैं। पांडव फ़ॉल में सेडीमेंट्री रॉक, लाइम स्टोन एवं सैंड स्टोन बहुतायात में हैं। इसके अतिरिक्त खजुराहो के समीप हीरे की खदान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, राजगढ़ का महल घड़ियाल पार्क भी देखने योग्य हैं।
एक बात और विशिष्टाविशिष्ट है। यदि लोकजीवन के सौंदर्य को नाचते-कूदते देखना हो तो दीपावली के दूसरे दिन खजुराहो आने का कार्यक्रम बना लीजिए क्यों कि दीपावली के बाद प्रदेश भर से श्रद्धावान मोर पाँखों के साथ, गमछे में प्रसाद बाँधे मतंगेश्वर महादेव के समक्ष नृत्य करने के लिए एकत्रित होते हैं। मेला-सा लगता है खजुराहो के पश्चिम मंदिर क्षेत्र में। मूलतः यहाँ अहीर नृत्य होता है जो मध्य भारत के मड़ई-मेलों का आकर्षण है।
देखने योग्य होता है इन नृत्य अभिलाषीयों का उत्साह। ये जब अपने घरों से निकलते हैं तभी से उपासे और मौन रहते हैं। बस एक ही लक्ष्य संजोते हैं कि शीघ्रातिशीघ्र मतंगेश्वर महाराज के समक्ष नृत्य करें और विशाल श्वेत पिंडी की जिलहरी पर चढ़ के उनकी पूजा करें। इस नृत्य में नृत्य मुद्राओं के स्थान पर वीर रस की प्रधानता रहती है।
सब कुछ सही है। बहुत सुंदर है, फिर भी एक बात कहूँ यदि चंदेल राजघराने का शौर्य यहाँ के प्रस्तरों में रचा-बसा है तो उन शिल्पियों का कौशल भी समतुल्य है जो प्रणम्य है। मात्र खजुराहो ही क्यों, विश्व के वे सभी शिल्पी जिन्होनें कला, संस्कृति, स्थापत्य के अविस्मरणीय निर्माण किए वे लोक-प्रणम्य के अधिकारी हैं। ऐसा मेरा विश्वास है।
समाज ने राजाओं के सामने शीश झुकाए, उन्हें मान का मुकुट पहनाया, जयकारों के पुष्पों से आच्छादित किया; परंतु तनिक ध्यान से वहाँ पीछे तो देखिए! अंधेरी झोपड़ी में छोटे-से चूल्हे को घेर के बैठा वह हथौड़ी-छैनी का जादूगर परिवार। इसका महत्व क्या क्षीण होना चाहिए…? क्या है उसकी कथा…? कौन सुनाएगा? यह अनुत्तरित प्रश्न हैं। वे प्रश्न, जिन्होंने सदियों की यात्रा की और आज भी हमारे सामने खड़े हैं काल-कृति बनके।
वे शिल्पकार तो चिर विदा ले गए, किंतु उनकी अचिर रचनाएँ विद्वमान हैं सृष्टि संचालक की कृपा पात्र बन जो आज भी हमसे कुछ कहतीं हैं। पता नहीं, हम क्यों समझ नहीं रहे हैं। उन शिल्पकारों की प्रश्न याचित दृष्टि संभवतः यही पूछ रही है, “सुनो, वर्तमान के वासियों…! वैभव-विलास के मध्य मुझे भूल न जाना। मेरे जीवन के अनेक वर्ष यहाँ दबे हैं, दबीं हैं मेरी साँसें, मेरा विश्वास, मेरा परिश्रम। खोद निकालो इनको और बता दो जगत को कि यह, वह और वो भी है इस सजीव नगर का निर्माता।”
मैंने सुना तो साझा किया आपसे। जो कभी आप सुने तो अवश्य आगे बढ़ाना इन अनाम शिल्पियों के कला-रथ को। मित्रो! क्या आप जानते हैं आज भी ये शिल्पकार क्या कर रहे हैं-
‘प्रतीक्षा-प्रतीक्षा-प्रतीक्षा।’
-अखिलेश ‘दादूभाई’