स्वप्न जब संकल्प बन जाएँ तो हम नहीं, अपितु ये सपने ही हमें जीने लग जाते हैं। ज़िद्दी मन हार मानता ही नहीं किसी भी कठिनाई से। अथक हठ के साथ उलझा ही रह जाता है इनकी प्यार भरी मनुहार और तकरारों में। पर इस लगन का ही तो खेल है यह जीवन सारा। जैसे मछली नहीं ऊबती जल से इनसान भी तो नहीं ऊबता प्रिय और मनचाहे से। ये सपने ही तो वास्तविक स्रोत या प्राण-वायु हैं। उर्जा स्रोत हैं जीवन के।
और यदि अपनों का साथ भी हों तो सोने में सुहागा, हर मुश्किल आसान ! और लेखनी सौभाग्यशाली है कि उसे अपनों का साथ सदा और भरपूर मिला है।
हमेशा की भांति इस बार भी एक रोचक अंक लेकर आई है लेखनी और स्वप्न, कर्तव्य और यादों के इस त्रिकोण में कई रोचक संस्मरण , कहानी, कविता आदि की रंगोली संजोई है हमने लेखनी के इस १५९ वें अंक में । साथ-साथ होली की इंद्रधनुषी छटा भी है।
कहीं प्रकृति मोहेगी आपको तो कहीं पर मनोभाव, तो कहीं रिश्तों की रेशमी परन्तु उलझी-सुलझी डोर भरपूर उलझाएगी। अनुभव और यादों के ये खट्टे, मीठे और कभी-कभी कड़ुवे भी ये अहसास, यही तो रीढ़ की हड्डी हैं जो हमें खड़ा रखते हैं। गढ़ते, बनाते और बिगाड़ते हैं। तभी तो शायर ने कहा कि,
‘यूँ बरसती हैं तसव्वुर में पुरानी यादें
जैसे बरसात की रिम-झिम में समाँ होता है’
क़तील शिफ़ाई
और हमने भी सोचा कि संस्मरण और यादों से बढ़कर क्या होगा उन्नीसवें वर्ष के इस प्रवेशांक के लिए। तो यह सफ़र जो आठ मार्च २००७ को महिला दिवस पर लेखनी के प्रथम अंक के रूप में शुरु हुआ था , आज उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुका है जिसे लोग परिपक्व या वयस्क भी कहा करते हैं। यानी कि अट्ठारह वर्ष पूरे करके उन्नीसवें में प्रवेश कर रही है आपकी ‘लेखनी’ इस अंक के साथ। और यह भी एक सुखद संयोग ही है कि ब्रिटेन से नहीं भारत से आ रहा है यह अंक इस बार आपके हाथों में। वह भी ठीक होली के त्योहार के दिन। होली जब कुत्सित कामनाओं को जलाया जाता है। मन की कुंठा और पश्चाताप को रंग और गीत के माध्यम से बाहर निकाला जाता है। सारी कलुष भूल दुश्मन को भी गले लगाया जाता है। अभी तक तो भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति में मेल-मिलाप और सद्भाव का आधार ही रहे हैं ये त्योहार।
सिर्फ लेखनी पत्रिका की ही बात करें तो अट्ठारह वर्ष कम नहीं होते अनुभव और यादों को संजोने के लिए।
अनगिनत यादें संजोए, यादें जो एक अटूट कड़ी हैं वर्तमान की अतीत से। आकांक्षा और अभिलाषाओं को ही नहीं जोड़ती ये, सपनों से भी। एक उद्देश्य, एक निरंतरता देती हैं ये हमारी चेतनी को । और यदि लगन सच्ची हो तो संकल्प निष्ठ होकर कर्म की प्रेरणा भी देती हैं।
सादा-सपाट जीवन में उल्लास और उद्देश्य , चाहत और नफ़रत के रंग भर देती हैं। यही वजह है कि यदि याद रखने का सिलसिला टूटा तो आदमी स्मृतिहीन, उद्देश्य हीन होकर जीना ही भूल जाता है। क़रीब-करीब पशुवत् हो जाता है। मात्र साँस लेती मशीन।
सब कुछ खोने लगता है इनसान स्मृतिहीन होकर। रास-रंग ही नहीं, ख़ुद को और जीना भी भूल सकता है। जीवन में व्यक्तियों को घटनाओं को चीन्हना और संजोना सिखाती हैं ये यादें। मन में अच्छे-बुरे की पहचान देती हैं। यही वजह है कि आज के इस जटिल और तनाव गृस्त जीवन में भूलने की बीमारी या मानसिक विकार बनकर उभर रही है पश्चिम में। सुकुमार मन का पोषण या विटामिन हैं सकारात्मक भावनाएँ और संदेश । और यह काम लेखनी पिछले अठ्ठारह वर्ष से भलीभांति निभा रही है। समाज के हर घर्षण और तनाव में जाकर उसे सुलझाने की कोशिश की है हमने हर अंक में। कहीं कड़वी औषधि के रूप में तो कहीं स्वादिष्ट व रोचक पेय के रूप में। और हमारी नज़र में यही साहित्य का असली उद्देश्य है। कुछ बी नग्न या वीभत्स नहीं। सत्य, शिव और सुंदर के सहज समावेश के साथ, सुपाच्य और सुरुचि पूर्ण रूप में।
बहुत प्यार और मनुहार के साथ यादों की बगिया में ले चल रहा है यह प्रवेशांक आपको यादों की बगिया में।
कई प्रिय व नए पुराने लेखकों के संस्मरण संजोए हैं हमने इस बार इस अंक में। जी भरकर आनंद लें इन रसभरी रिमझिम फुहारों का यादों के इस कारवाँ के साथ। संभवतः आपको भी कभी हँसाएँ तो कभी रुलाएँ ये! गुदगुदाएँगी तो अवश्य ही, संभवतः यादों की सैर पर भी ले जाएँगी!
अपनी बात करूँ तो वर्ष २०२५ की शुरुआत बेहद आनंददायी रही। पहले मिश्र में शार्मल शेख और कैरो की सैर की फिर छोटी बहनों सम सखियों के हठी और स्नेहिल आग्रह के तहत अट्ठाइस फरवरी को भारत पहुंचना, किसी मनभावन स्वप्न को ही तो जीने जैसा लग रहा है सब कुछ। मानो रस-बौछार हो चारो-तरफ। क्षणिक ही सही, अपनों का जमावड़ा था हर ओर। ढेरों यादें, ढेरों संस्मरण हैं। समय -सीमा और दबाव के अंतर्गत जो कुछ लिख पाई, संजो पाई, साझा किया है। पर बहुत कुछ है जो छूट भी गया है या अभी घटना शेष है और उन सबके लिए आपको अगले अंक का इंतज़ार करना पड़ेगा।
आपके लिए बहुत कुछ उद्देश्य पूर्ण और रोचक संजोया है हमने पर इस अंक में और इस बात का संतोष भी है कि आपकी लेखनी पत्रिका आपकी ही नहीं, समय की कसौटी पर भी अब वयस्क हो चली है, वह भी भांति-भांति के अवरोध और तकनीकी तकलीफ़ों के बावजूद! हर्षातिरेक में ख़ुद को ही चिकोटी काटने को मन करता है, कहीं यह भी तो एक स्वप्न ही तो नहीं?
पर नहीं, पूर्णतः सच और समक्ष है लेखनी का नया मार्च-अप्रैल २०२५ का यह तरोताजा अंक।
आइये देखते हैं क्या-क्या संजोया है हमने इस अंक में, कविता धरोहर में शंभुनाथ सिंह की भावभीनी कविताएँ हैं तो गीत और ग़ज़ल में एकबार फिर हम ताराचन्द नादान की ग़ज़लें लेकर आए हैं। कविता आज और अभी में ऐसे विषय या बातें हैं जिन्हें मन भूल नहीं पाता। सम्मिलित कहानियाँ अपनी-अपनी तरह की अनूठी और अलग हैं। पहली कहानी’एक पत्र ऐसा भी ‘इंदु झुनझुनवाला की कलम से निकली एक संस्मरणात्मक कहानी है तो दूसरी कहानी ‘अहसास’ रिश्तों की जटिलता दिखाती है जिसे सपना ने बड़ी खूबसूरती से उकेरा है। तीसरी कहानी आपकी परिचित लेखिका अनिता रश्मि की कलम से है और करोना काल की दिद्रूपता दर्शाती है। चौथी और अंतिम कहानी शहजादी सामाजिक विषमताओं को समेटे हुए एक रहस्यभरी और रोमांचक संस्मरणात्मक कहानी है।
संस्मरण में गोवर्धन यादव ने अपने जीवन के अस्सी बरस का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जबकि कादम्बरी मेहरा का संस्मरण उनके प्रकृति प्रेम र कोमल मन को दर्शाता है। बेहद कठिन परिस्थितियों में लिखा गया शन्नो अग्रवाल का संस्मरण बचपन की गलियों से गुजरते हुए जीवन की खट्टी-मीठी और रोचक यादें संजोए हुए है। और भी कई अन्य संस्मरण हैं जो आपको बांधे रहेंगे।
पढ़कर यदि बताएँगे कैसा लगा अंक, कहाँ और क्या त्रुटियाँ रह गईं? कैसे हम इसे बेहतर बना सकते हैं? तो आपका स्नेह और मार्ग-दर्शन तो हमें मिलेगा ही, हमारे लिए बेहतर करने के लिए प्रोत्साहन भी कम नहीं होगा ।
लेखनी का अगला अंक हमने भारत की ज्ञान परंपरा पर ऱखा है। और आपसे विषय संबंधित सामग्री का अनुरोध है। भेजने की अंतिम तिथि २० अप्रैल है, उन्ही पुराने ई. मेल पर,
shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail. com
होलिका-उत्सव और चैत्र नवरात्रि की अशेष सुभकामनाओँ के साथ,
आपकी अपनी
शैल अग्रवाल
मार्च-अप्रैल २५