संस्कृति और संस्कार, ये दो शब्द अक्सर ही हमें सुनाई तो देते हैं परन्तु आज के इस भौतिक और सुविधा-अधीन युग में इनकी उपयोगिता और समझ दोनों ही पीछे छूटती जा रही हैं। व्यवहार की कसौटी पर बारंबार खरी उतरकर ही कोई क्रिया परंपरा का सामूहिक रूप ले पाती है और वक्त के साथ उस समूह या कबीले , उस जगह की संस्कृति बन जाती है। संस्कार इसी संस्कृति को जीवित रखने का अथक प्रयास या प्रक्रिया है। जो हम अपने परिवार, गुरुजन और धर्म-ग्रन्थों से जानते और सीखते हैं। ये बड़ों के आदर-सम्मान की बातें भी हैं और आपसी सामंजस्य व सौहाद्र की भी। संक्षेप में कहूँ तो संस्कार वह अच्छी बातें हैं, जिन्हें समय की कसौटी पर परखा जा चुका है और इन्हें हम अपने घर-परिवार और देश में जीवित रखना चाहते हैं। बच्चों को समझाते- पढ़ाते हैं। इतना कि वे हमारी पहचान बन जाती हैं।
आज ये गौरव-मय अनुभव या तो प्रवचनों में खो गए हैं और बिना जाने-समझे, मात्र रीति रिवाज की तरह निभाते हैं लोग, या फिर बेड़ियाँ समझकर तोड़ रहे हैं और बिना कुछ सोचे समझे पाश्चात्य रीति-रिवाज और भोग-विलासिता की अंधी दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं। संस्कृति और संस्कार की कमी , उन्हें व्यर्थ या बोझ समझना या फिर निरर्थक और बेजरूरत समझना फिर इस टूटन और अभाव से उत्पन्न विश्व-व्यापी बढ़ते आक्रोश और अपराधों के मद्दे नजर , लेखनी का यह अंक हमने आधे-अधूरेपन के इसी अहसास पर केन्द्रित किया है। विश्वास और अंध-विश्वास के फर्क को समझना चाहा है। इस टीस और कसक के साथ-साथ इससे उत्पन्न क्रोध, भय, विद्रोह , अत्याचार और भ्रष्टाचार… विशेषतः युवा समाज और समाज के कर्णधारों में, को सोचनेा-समझने व रोकने के क्या उपाय हैं? भ्रष्ट समाज, भ्रष्ट नेता …राजा प्रजा सभी के लिए। कहीं आग लग जाती है तो कहीं फाइलें गायब। और हम इस जादू पर तालियां बजाते हैं। जादूगर को जयमाल पहना आते हैं ‘टके सेर भाजी और टके सेर खाजा ‘ के इस युग में। आज खबरें नही हैं अपितु व्यापार मीडिया के समक्ष बड़ा संकट बन चुका है। चुनौती जटिल है, जब धर्म तक चुनाव जीतने का मुद्दा बन जाए और मन-माफिक जोड़-तोड़ व सफेद झूठ प्रमुख हथियार ।
यहाँ साहित्य जो युगों से समाज को दर्पण दिखाता आ रहा है, आज भी अपनी जिम्मेदारी निभा सकता है। एक बार फिर से शब्द के बृह्म को पहचानने की जरूरत आन पड़ी है। इसे मात्र मनोरंजन की , आपसी लेन-देन की वस्तु ही नहीं मानकर कहीं तलवार तो कहीं शिक्षक तो कहीं मित्र बनना होगा। लेखकों के साथ पत्रकारों की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। खबर वही नहीं है जो हमें दिखाई या सुनाई देती है उसका निहितार्थ ही उसे खबर बनाता है। खबर और विज्ञापन में जब भेद दिखाई न पड़ता हो तब निहितार्थों को समझना जरूरी भी है और कठिन भी। रेत से सोना छांटने जैसा भले ही हो चेहरों को बेनकाब करना पर इस साहस के बिना सच्ची और हितैषी संस्कृति व संस्कार की बातें नहीं की जा सकती हैं।
आज के समय में जब मुख्यधारा की पत्रिकाएं व अखबार कारपोरेट जगत व सम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव में डूबती जा रही हैं और देश के चौथे स्तंभ के प्रति पाठकों में संशय उत्पन्न हो चुका है, लघु पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। लघु पत्रिका का सबसे बड़ा गुण है कि इसने संपादक और लेखक की अस्मिता को सुरक्षित रखा है। ये पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं।
लघु पत्रिकाओं का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न है, ये पत्रिकाएं मौलिक सृजन का मंच हैं। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईजेशन का प्रश्न हो व्यावसायिक पत्रिकाएं सत्ता विमर्श को ही परोसती हैं। सत्ता विमर्श व उसके पिछलग्गूपन से इतर लघु पत्रिकाएं अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्ष व सकारात्मक सृजनशीलता के पक्ष में उभरकर आगे आई हैं।
इन बातों के मद्देनज़र इतना स्पष्ट है कि इस दीवानगी, इन लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहां आज भी है, कल भी थी और भविष्य में भी रहेगी। लेखनी अपना यह उत्तर दायित्व निभाने के लिए आप जैसे सुधी पाठको और विवेकी रचनाकारों के साथ पहले ही अंक से प्रयत्नरत रही है। सदा की भांति बहुत कुछ नया और प्रेरक संजोने की कोशिश रही है हमारी। उम्मीद है अंक आपको पसंद आएगा। एक महीने के लिए भारत यात्रा पर हूँ। तो लेखनी का आगामी अंक -पुनः पुनः भारत-यानी भारत पर है। आपके संस्मरण, रचना और विचारों का स्वागत है। रचना भेजने की अंतिम तिथि 20 अगस्त है।
तो मित्रों देर किस बात की लिखें कितना प्यार करते हैं आप अपने देश से और क्या-क्या परिवर्तन देखना चाहेंगे आप इसमें। क्या आज भी यह एक धर्म निरपेक्ष और शांति प्रिय देश है या फिर यह भी उस अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है?
शैल अग्रवाल