अनुपम भारतः सुनील कुमार चौरसिया ‘ सावन ‘


भारत और भूटान का सफरनामा

भव्य जीवन, सभ्य मनन, शेरदुक्पेन शील।
महायान शाखा शिखी, समरसता की झील।।

सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध, सुंदर रंगरूप एवं चित्ताकर्षक शारीरिक गठनवाली शेरदुक्पेन जनजाति अरुणाचल प्रदेश की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। इनका कद मध्यम होता है। अरुणाचल का पश्चिमी कामेंग जिला इनके निवास क्षेत्र हैं । प॰ कामेंग जिले का रूपा, जिगांव और शेरगांव नामक तीन गांवों में ही मुख्य रूप से इनकी अधिकांश आबादी निवास करती है। कमिंग बारी के आसपास भी इनका निवास स्थान है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदी कामेंग हैं जिसके नाम पर जिले का नामकरण किया गया है। बौद्ध धर्म की महायान शाखा में निष्ठा रखने वाली यह जनजाति शांतिप्रिय, शिष्ट, भद्र एवं दूसरों का आदर करनेवाली है। इस समुदाय के लोग विश्वासी और ईमानदार होते हैं। इनकी जनसंख्या लगभग चार हजार है। ऐसी मान्यता है कि इनके पूर्वज तिब्बत से आए थे। कहा जाता है कि तिब्बती राजा के तृतीय पुत्र इनके शासक थे। राजा की पत्नी असम की एक राजकुमारी थी। तिब्बती सम्राट के प्रथम और द्वितीय पुत्र क्रमशः ल्हासा और भूटान के शासक थे। इनका भूटान के साथ घनिष्ठ संबंध था। पुरुष लोग शरीर के ऊपरी भाग को ढकने के लिए सिल्क का बना हुआ ‘सापे’ पहनते हैं। यह ढाई गज लंबा और डेढ़ गज चौड़ा होता है। यह बिना आस्तीन का होता है और घुटने के ऊपर तक रहता है। ‘सापे’ के ऊपर पूरी आस्तीनवाला जैकेट भी डाला जाता है। जैकेट का गला गोलाकार होता है और यह आगे से खुला रहता है। जाड़े के दिनों में शरीर को गरम रखने के लिए जैकेट के ऊपर कोट भी पहना जाता है। पुरुष लंबे बाल नहीं रखते। सिर पर याक के बाल और खोपड़ी से बना हुआ टोप पहनते हैं। इस टोप का स्थानीय नाम ‘गर्दम’ है। शेरदुक्पेन समाज बौद्ध मतावलंबी है। ये लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विश्वास रखते हैं। बौद्ध धर्म के साथ इसमें स्थानीय लोक विश्वास एवं परंपरा भी जुड़ गयी है। भगवान बुद्ध को स्थानीय भाषा में ‘कोंचोजम’ कहा जाता है। भगवान बुद्ध अत्यंत दयालु, चमत्कारी, अति तेजस्वी ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शेरदुक्पेन लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि कुछ दुष्ट आत्माए होती हैं जो मनुष्य को हानि पहुंचा सकती हैं। इसी प्रकार कुछ अच्छी आत्माएं और देवी-देवता भी होते हैं जो मनुष्य की रक्षा करते हैं तथा सुख-समृद्धि देते हैं। इन लोगों की मान्यता है कि देवी-देवताओं की निष्ठापूर्वक आराधना करने से वे हम पर प्रसन्न रहते हैं तथा धन-धान्य से परिपूर्ण करते हैं। ‘गोम्बु छा दकपा’ ऐसे देवता हैं जो दुष्टात्माओं से मानव की रक्षा करते हैं। ‘गेपु नाम्से’ मनुष्य की कामना पूर्ण करने वाले देवता हैं। इसी प्रकार ग्रामदेवता, वनदेवता और स्वर्गदेवता की भी पूजा-अर्चना की जाती है। इनका विश्वास है कि सूर्य की संख्या सात है और ये सभी एक साथ रहते हैं। इस समुदाय में पुजारियों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। पुजारी वर्ग के लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ये लोगों का दिशा निर्देशन करते हैं, बुरी आत्माओं से उनकी रक्षा करते हैं, रोगी को आरोग्य करने के लिए ईश्वर एवं देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हैं। बिना पुजारी के शेरदुक्पेन समाज का कोई संस्कार संपन्न नहीं हो सकता है। उन्हें लामा कहा जाता है। बौद्ध मठ को गोम्पा कहा जाता है जो शेरदुक्पेन लोगों की धार्मिक आस्था का केंद्र बिन्दु होता है। रूपा और शेरगांव दोनों गाँव में गोम्पा है जिसमें तिब्बती शैली में भगवान बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ स्थापित हैं। रूपा ग्राम का गोम्पा क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे पुराना गोम्पा है। प्रत्येक गोम्पा में लामा होते हैं जो गोम्पा की देखरेख और भगवान बुद्ध की पूजा करते हैं। गोम्पा और गांव में जाने के लिए एक मुख्यद्वार होता है जिसे ‘काकालिंग’ कहते हैं। यह वर्गाकार होता है जिसमें पत्थर से बनी दो समानान्तर दीवार होती है और छत लकड़ी अथवा बांस की बनी होती है। इसमें भगवान बुद्ध और अन्य बौद्ध दिव्य आत्माओं के चित्र होते हैं। रूपा और शेरगांव के मठों में भी काकालिंग बना हुआ है।

गोम्पा से गोम्पा रमे, लामा मंत्र जाप ।
काकलींग को पार कर, कोंचोजम सुख आप।। – ‘सावन’

थोंग्डोक, थोंगो, थोंग्ची, ख्रीमें, मुसोबी, वांग्जा, मिगेजी, मोनोजी, सींचाजी, मिजीजी, डिंग्ला इत्यादि शेरदुक्पेन की उप जनजातियां हैं तथा जिडिंग खो, डिनिक खो, डोब्लो खो इत्यादि यहां की नदियां हैं।

रूपा के प्रतिष्ठित शिक्षक वांग्चू जी एवं आपकी माताजी ने बताया कि शेरदुक्पेन समुदाय के पर्व-त्योहार कृषि पर आधारित हैं। ये लोग कई त्योहार मनाते हैं जिनमें ‘लोसर’ और ‘छेकर’ सबसे महत्वपूर्ण है। इस जनजाति के लोगों का जीवन भव्य एवं सभ्य है।

खिकसबा,छेकर, लोसर, गुणी शेरदुक्पेन।
सप्त निशा की पूर्णिमा, बरसे रस दिन रैन।।

हिंदुस्तान की मिट्टी में सुगंध है भूटानी।
भूटान की भूमि में नमी है हिंदुस्तानी।।

भारत और भूटान एक दूजे के हितैषी हैं।भूटान भारत के साथ कुल 699 किलोमीटर की स्नेहपूर्ण सीमा साझा करता है। भारत के 4 राज्य सिक्किम ,पश्चिम बंगाल ,असम और अरुणाचल प्रदेश भूटान के साथ सीमा साझा करते हैं।भूटान में सबसे अधिक बौद्ध धर्म का पालन किया जाता है। देश में लगभग 75% आबादी बौद्ध धर्म का अनुसरण करती है, जिसमें वज्रयान बौद्ध धर्म का बहुमत है। पूर्वोत्तर भारत में भी बौद्ध धर्म की प्रधानता है। भारत और भूटान का सफरनामा मनहर है, अविस्मरणीय है….

मंद-मंद समीर का स्पर्श पाकर हिमालय पर लहरते हुए दार्जो। लाल, पीला, हरा, नीला और सफेद दार्जो अर्थात् बौद्ध पताका जिस पर मंत्रों का उल्लेख होता है। जब भी आप हिमालय की चोटी पर सफर करेंगे तब सड़क के किनारे लहरते हुए पवित्र धर्म ध्वज के दर्शन हो ही जाएंगे। हिमालय पर्वत पर बौद्ध धर्म की प्रधानता है । यहां के लोग अपनी मनोकामना को पूर्ण करने के लिए या पूर्ण होने पर पहाड़ पर अपना धर्म ध्वज पवित्र भाव से बांधते हैं। हमें यह जानकारी यात्रा के दौरान प्राप्त हुई।
दिसंबर के प्रथम सप्ताह में हमारे केन्द्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश में शीतकालीन अवकाश होता है। यात्रा 4 दिसम्बर 2020 की है। छुट्टी के बाद हम शिक्षक साथियों ने मिलजुल कर गाड़ी रिजर्व कर ली थी। टेंगा वैली से घर की यात्रा शुरू हुई। हिमालय पर हाड़ कंपा देने वाली ठंड। ठंड के मारे यहां की घासें सुख कर पीली हो जाती हैं। कभी-कभी इतनी बर्फबारी होती है की घास का नामोनिशान ही मिट जाता है।
हमारी गाड़ी टेंगा घाटी से रूपा होते हुए जिगांव तक पहुंच चुकी थी। रास्ते में शेर गांव भी पड़ता है जो सेव की खेती के लिए मशहूर है। जिंदगी की भांति घुमावदार मार्ग। चारों तरफ घनघोर जंगल। ठंड से ठिठुर ठिठुर कर पीले पड़े हुए वृक्ष। सड़क के बीचों बीच में हमारे स्वागत हेतु दल के दल बादल। बादलों के बीच से जब हमारी गाड़ी गुजर रही थी तो नजारा बहुत ही मनमोहक था। कई बार तो गाड़ी को रुकवाकर हम सब बादलों की बस्ती में मस्ती करते रहे।

तेनजिंग गांव और कलकतांग का प्राकृतिक सौंदर्य मनोहर है।जब भी हम कलकतांग से गुजरते हैं तो वहां के एनसीसी कैडेट्स की याद आती है। हिमालय पर्वत पर कुछ होटल हैं जहां बहुत ही स्वादिष्ट भोजन मिलता है। मात्र ₹100 में एक थाली भोजन मिलता है जिसमें दाल, भात, सब्जी, पापड़ और सलाद मिलता है। यहां के लोग चावल को ज्यादा पसंद करते हैं । रोटी कहीं-कहीं मिलती है। यहां के लोग चावल और भात को ‘खाना’ कहकर संबोधित करते हैं। यहां बकरी, मुर्गा , मछली और सूअर के मांस को विशेष रूप से पसंद किया जाता है। हमारे साथ कुछ शिक्षक साथी शुद्ध शाकाहारी होते हैं जिनके लिए यहां के होटलों में विशेष भोजन का प्रबंध रहता है। मैं भी शाकाहारी ही हूं। इसी भाव को मैंने भोजपुरी में पंक्तिबद्ध किया है-

हम हईं शाकाहारी।
नाहीं हईं मांसाहारी ।।
न चले मछरी, न मुर्गा, न खंसियां
बात कहें सांचे सुनील चौरसिया ।।

भोजन करने के पश्चात हमारी गाड़ी कलकतांग से डेंजी की तरफ बढ़ी। रिमझिम- रिमझिम वर्षा हो रही थी। सड़क के किनारे एक श्मशान घाट दिखा। जिसमें कुछ लोग खड़े थे और मूसलाधार बारिश में एक लाश धूं – धूंकर जल रही थी। यहां अक्सर बारिश होती रहती है। इसीलिए इस मसान घाट में छतरी नुमा बना होती है ताकि लाश को जलाने में समस्याओं का सामना ना करना पड़े।

हिमालय पर्वत पर यात्रा आनंददायक होती है। मुझे उल्टी की समस्या है। इसलिए यात्रा शुरू होने से एक घंटा पूर्व दवा का सेवन कर लेता हूं ताकि यात्रा का भरपूर आनंद लिया जा सके। पहाड़ी मौसम अपना रंग बदलता रहता है । कभी धूप, कभी धुंध, कभी वर्षा, कभी कोहरा। टेंगा घाटी से घर जाने हेतु पहाड़ से उतरकर असम जाना होता है। पहाड़ी यात्रा 8 से 10 घंटे की होती है। प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते-लेते यात्रा के दौरान हम सब गाड़ी में सो गये। बीच सफर में मेरी नींद खुली तो देखा- एक शिखर से दूसरे शिखर के मध्य बहुत ही खूबसूरत इंद्रधनुष।

रास्ते में हाथी का मल एवं पांव के निशान थे। चालक ने हमें बताया कि यहां जंगली हाथी घूमते रहते हैं और कई बार गाड़ी को घेर लेते हैं। सड़क के किनारे केले का जंगल। जंगल में भयानक जानवरों का दंगल। कहीं दंगल कहीं जंगल में मंगल।

असम से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने के लिए इनर लाइन परमिट की जरूरत पड़ती है लेकिन अरुणाचल प्रदेश से असम में प्रवेश करने के लिए किसी प्रकार की कोई जांच नहीं होती है।

अरुणाचल प्रदेश से असम में प्रवेश करने से पूर्व गाड़ी में तेल भरवाने हेतु हमारे चालक ने गाड़ी को भूटान की ओर मोड़ दी । जहां उचित दाम पर डीजल- पेट्रोल मिल जाता है। तेल भरवा कर चालक ने अपनी गाड़ी को भूटान से भारत की तरफ मोड़ दी। हम सभी भारतवासियों को भूटान की भूमि पर असीम खुशी एवं प्रसन्नता का एहसास हुआ। धरा एक, अम्बर एक, नीर एक, समीर एक। सीमा पार करते ही सिर्फ भाव बदल गया तो भव बदल गया। भारत और भूटान का सफरनामा मस्ताना रहा। मेरी लेखनी से भारत और भूटान के मैत्री संबंधों को समर्पित सरस शब्द छलक पड़े-

हिंदुस्तान की मिट्टी में सुगंध है भूटानी।
भूटान की भूमि में नमी है हिंदुस्तानी।।

सीमा पार कर हमारी गाड़ी बलेमू की ओर बढ़ चली। बलेमू वह स्थान है जहां भारत और भूटान की सरस सीमा है। वहीं भैराकुंड नदी भूटान और भारत (अरुणाचल प्रदेश) से होते हुए प्रवाहित होती है। स्विच पुल को पार कर हम अरुणाचल प्रदेश से असम में प्रवेश किए। समुद्र तल से लगभग 5000 फीट की ऊंचाई पर टेंगा घाटी में ना खुला मैदान दिखता है ना खेत खलिहान दिखता है। असम का खेत, खलिहान और खुला मैदान देखकर अपने गांव, घर और खेती बाड़ी की याद आ गयी।

गिरिराज महाराज का बहुत ही खूबसूरत मुकुट है तवांग। केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली के एनसीसी कैडेट्स की परीक्षा एवं कैंप हेतु सितंबर 2021 में मैं तवांग गया था। हरी-भरी वादियों के मध्य मुस्कुराता हुआ तवांग बहुत ही मनमोहक है। प्रकृति की गोद में उछलता- कूदता हुआ तवांग। सुमन सा खिला हुआ बाल सुलभ खिलखिलाता हुआ तवांग। सड़कों पर टहलते हुए दल के दल घनघोर घन। तवांग में 1 सप्ताह ठहरने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ठंड से कांपती हुई वसुधा पर मचलते हुए घनघोर घन को निरेखकर मेरी लेखनी से ‘अवधूत हिमालय’ नामक कविता प्रस्फुटित हुई-

घनघोर घटा लिपटी ज्यों जटा
अवधूत शोभे, भवभूत हिमालय

पांव पखारे , भावार्थ- सेवार्थ
भारत मां का सपूत हिमालय

रिपु से रक्षा करे महारक्षक
जुग-जुग जिए अग्रदूत हिमालय……

बहुत दूर से ही उपदेश देते हुए भगवान बुद्ध की विशाल मूर्ति के दर्शन होते हैं। अरुणाचल प्रदेश में स्थित तवांग गोम्पा बौद्ध मतावलंबियों (महायान शाखा) की आध्यात्मिक आस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र है । इसे एशिया का सबसे बड़ा बौद्ध गोम्पा माना जाता है । यह लगभग 350 वर्ष पुराना है । समुद्र तल से इस गोम्पा की ऊंचाई दस हजार फीट है । यहां पर 500 लामाओं के ठहरने की व्यवस्था है । इसके आस-पास मोंपा और शेरदुक्पेन जनजाति के लोग निवास करते हैं । तवांग हरित ललित घाटी में बर्फीली पर्वत चोटियों से घिरा हुआ और हरित वनों के मध्य में स्थित है । इसकी स्थापना मेरा लामा ने सत्रहवीं शताब्दी में कराई थी । इस किलेनुमा गोम्पा में पुस्तकालय भी है जिसमें दुर्लभ पुस्तकें और प्राचीन अभिलेख सुरक्षित हैं ।
ऐसा कहा जाता है कि इस गोम्पा के शिलान्यास के समय मेरा लामा ने तामदिंग (घोड़ों के भगवान) के सम्मान में एक भव्य समारोह का आयोजन किया था । उस समय से यह क्षेत्र तवांग (ता=घोड़ा) के नाम से विख्यात हुआ । तवांग नाम की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य कथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार मेरा लामा अपने घोड़े पर सवार होकर आए और इस जगह पर आकर उन्होंने अपना घोड़ा रोक दिया और घोड़ा रोककर लोगों को आशीर्वाद दिया ।(ता=घोड़ा,बोंग=आशीर्वाद) । एक दूसरे आख्यान के अनुसार बौद्ध मठ के लिए मेरा लामा जगह का चुनाव नहीं कर पा रहे थे । एक दिन उनका घोड़ा इस स्थान पर आकर रुक गया और इस प्रकार बौद्ध गोम्पा के लिए स्थान के चयन की अनिश्चितता दूर हो गई ।(ता=घोड़ा, वांग=चुनना)। अरुणाचल की बौद्ध मतावलंबी जनजातियों के लिए तवांग गोम्पा धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र है । मठ इनकी आध्यात्मिक चेतना का विराम है । यह बौद्ध मठ अपने प्राकृतिक सौंदर्य और उत्कृष्ट वास्तु कला के लिए भारत ही नहीं बल्कि एशिया में भी प्रसिद्ध है । पर्यटकों में यह छुपे हुए स्वर्ग के नाम से लोकप्रिय है। पर्यटक यहाँ पर ख़ूबसूरत चोटियाँ, छोटे-छोटे गाँव, शानदार गोम्पा, शांत झील और अन्य बहुत कुछ देख सकते हैं। इनके अलावा यहाँ पर इतिहास, धर्म और पौराणिक कथाओं का सम्मिश्रण भी देखा जा सकता है।
यहाँ से पूरी त्वांग-चू घाटी के ख़ूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं। तवांग मठ दूर से क़िले जैसा दिखाई देता है। तवांग मठ के पास एक जलधारा बहती है। यह जलधारा बहुत ख़ूबसूरत है I यहाँ से मठ के लिए जल की आपूर्ति होती है। तवांग मठ का प्रवेश द्वार दक्षिण में है जिसे काकालिंग कहते हैं । काकालिंग देखने में झोपडी जैसा लगता है और इसकी दीवारों के निर्माण में पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इन दीवारों पर ख़ूबसूरत चित्रकारी की गई है जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती है।
सर्दी के दिनों में यहां जमकर बर्फबारी होती है जिसकी वजह से पहाड़ की पौधे एवं वृक्ष पत्र ही नग्न गाछ बन जाते हैं। वहां के पहाड़ कहीं हरे-भरे हैं तो कहीं काले कलूटे। वहां के निवासियों ने बताया कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अब वहां का मौसम भी गर्म होने लगा है जो चिंता का विषय है। जो भी हो तवांग का मौसम बहुत ही सुहाना है।
आपने बहुत धाम किया होगा, देश भर में बहुत दर्शन किए होंगे लेकिन यदि प्रकृति माता के दर्शन करने की हार्दिक इच्छा हो मखमल जैसे नरम बादलों से खेलने की हार्दिक इच्छा हो तो सुकोमल तवांग की पावन भूमि पर आपका हार्दिक स्वागत है। अवधूत हिमालय की घनघोर घटा शिखर से ऐसे लिपटी रहती है मानो शिव की जटा हो।

सेला पास की बर्फीली स्मृतियां

बर्फ की चादर को ओढ़कर मन्द – मन्द मुस्कुराता हुआ सेला पास । सेला दर्रा या से ला (ला का मतलब है- दर्रा ) भारत के खूबसूरत राज्य अरुणाचल प्रदेश के तवांग ज़िले और पश्चिम कमेंग ज़िले के मध्य अवस्थित एक उच्च तुंगता वाला पहाड़ी दर्रा है। इसकी ऊँचाई 4,170 मीटर (13,700 फुट) है और यह तिब्बती बौद्ध शहर तवांग को दिरांग और गुवाहाटी से जोड़ता है। इस दर्रे से होकर ही तवांग शेष भारत से एक मुख्य सड़क के माध्यम से जुड़ा हुआ है। हिमालय पर्वत पर अवस्थित सेला से तवांग की दूरी लगभग 75 किलोमीटर है। इस दर्रे के आस-पास वनस्पति अल्प मात्रा में उगते हैं। जो उगते हैं वह ठंड से ठिठुर कर अपनी ज़िंदगी को अपने में ही समेट लेते हैं। सेला पास में नाम मात्र की है हरियाली। जिधर देखो उधर है धवल बर्फ की खुशहाली।

यह क्षेत्र आमतौर पर वर्ष भर बर्फ से ढका रहता है। इस दर्रे के शिखर के नजदीक स्थित सेला झील इस क्षेत्र में स्थित लगभग 101 पवित्र तिब्बती बौद्ध धर्म के झीलों में से एक है। हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर स्थित इस मनमोहक स्थान सेला पास पर फरवरी और मार्च महीने में लगभग -7 डिग्री सेल्सियस तापमान रहता है जहां अनवरत बर्फबारी होती रहती है और ठंड से ठिठुरते हुए श्वेत – श्याम शिखर से शीतल हवाएं अठखेलियां करती रहती हैं। कभी-कभी इतनी बर्फबारी होती है कि रास्ते बर्फ से अवरुद्ध हो जाते हैं और गाड़ियां बीच सफर में ही फंसकर ठिठुरने या यूं कहें कंपकंपाने लगती हैं। भारत सरकार ने 2018-19 के बजट में सभी मौसम में परिवहन की सुविधा से युक्त सेला दर्रा सुरंग के निर्माण हेतु वित्तपोषण की घोषणा की।

एक अनुश्रुति के अनुसार 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जसवंत सिंह रावत नामक भारतीय सेना के एक वीर जवान ने इस दर्रे के नजदीक चीनी सैनिकों के खिलाफ अकेले युद्ध किया था। जसवंत सिंह रावत को उनके साहस एवं कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था।ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण एवं गरिमामय है।

केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली से सेला की दूरी लगभग 122 किमी. है। ज़िंदगी की भांति घुमावदार एवं ऊंचे नीचे रास्ते। दोल बहादुर थापा सर के मार्गदर्शन में हम सब सेला की ओर चल दिए। शिक्षकवृंद के साथ संगीतय सफर। केंद्रीय विद्यालय टैंगा वैली परिवार के साथ बादलों की बस्ती में मस्ती। शिक्षक साथियों के साथ बर्फीली सेला झील पर उछलना, कूदना, दौड़ना, लेट कर आनन्दानुभूति करना, सर- सर, सर- सर, सरसराती हुई सुशीतल पवन एवं श्वेत श्याम वारिद संग बर्फ पर दौड़ना जीवन में सदा याद रहेगा।

सेला दर्रा तिब्बती बौद्ध धर्म का एक पवित्र स्थल है। बौद्धों का मानना है कि यहाँ आस-पास में 101 पवित्र झीलें हैं। देश-विदेश से पर्यटक वर्ष भर यहां आनंद लेने आते रहते हैं।

सिर्फ पर्यटकों को ही नहीं अपितु सेला को भी अपने प्यारे पर्यटकों से मोहमय प्रेम हो जाता है। तभी तो कोमल – कोमल बर्फ सबको गले लगाने लगती है।

शाम को जब विदाई की बेला आई

तब सेला झील की आंखें भी भर आईं…….

सुनील चौरसिया ‘सावन’

शिक्षक एवं साहित्यकार

९०४४९७४०८४

sunilchaurasiya767@gmail.com

सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net

error: Content is protected !!