एक ओर मेरा छोटा भाई, एक माह से वेन्टीलेटर( जीवन रक्षक प्रणाली) पर
अस्पताल में निर्जीव, पूरे शरीर पर मशीनों के तार लिपटे,,,,
एक आशा लिए रोज इमर्जेंसी वार्ड में जाती कि शायद एकबार आँख खोलकर देख ले, कुछ तो बोल दे, पर उसकी अधखुली-सी आँखें निर्जीव-सी,,
जैसे उसमें जीवन है ही नहीं, बस मशीन से चल रही हैं साँसें,,,,,,।
हाथ पैर सूईयों से लाल,,,धाव भरे, मोटे- और बेढब से,,,।
याद आता है कितना सुन्दर था वो, सभी कहते थे ये तो देव पुरुष-सा है, राजकुमार की तरह सुन्दर ।
पर आज एक बेजान-जान।
फैल चुका है कैंसर का विष पूरे शरीर में,,कोई उम्मीद नहीं!
डाक्टर जानते हैं सच।
शायद हम सभी का मन भी।
पर मोह-ममता का कच्चा कहलानेवाला धागा इतना मजबूत होगा, पता नहीं था, बस उसका आँखों के सामने होना ही बहुत था।
पर नहीं।
एक दिन समझाया डाक्टर ने, वो दोस्त भी था मेरे भाई का।
कहा उन्होंने- अब कुछ भी नहीं, जो है, वो बस वेन्टीलेटर के कारण है, उसकी आत्मा को कष्ट हो रहा है, शरीर अथाह कष्ट में है, क्या करना है,,,?
हम कुछ नहीं कह सके।
पर हिम्मती थी भाभी,,, वह उठकर गई और भाई के पास खड़ी होकर कहा, मैं अब कल से नहीं आऊँगी, आपको इतना कष्ट में मैं नहीं देख सकती।
पता नहीं भाभी की आवाज उसतक पहुँची या नहीं, कैसे पहुँची?
पर एक दिन बाद ही,,,,,,,,।
चला गया वो चुपचाप।
निकल गया वेंटिलेटर स्वयं ही।
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तब याद आया मुझे, मेरे श्वसुर जी का हास्पीटल में पाँच दिनों तक वेंटीलेटर पर होना ,,,,।
हम सब बस एक ही प्रार्थना के साथ हर धड़ी पास बैठे होते कि काश वो कुछ बोल दें, एक अंगुली ही हिला दे, आँखों से कोई ईशारा ही कर दें।
पर नहीं।।।
पाँचवें दिन इमर्जेंसी वार्ड के डाक्टर ने बुलाकर सच समझाया।
सबने मिलकर निर्णय लिया कि घर लेकर जाएँगे, उम्मीद भी थी शायद घर पर जाकर कुछ अहसास हो,,,,
अम्बुलेंस से घर लाए, वेन्टीलेटर के साथ,,,,।
पर ये क्या एम्बुलेंस से उतारा, बिस्तर पर सुलाया और वेन्टीलेटर लगाया तभी जोर की एक हिचकी और किस्सा खत्म।
शायद जीवन उतना ही शेष था।
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पर कष्ट,,, कष्ट महीनों तक भोगा दोनों ने।
ऐसे में मेरे मन में एक सवाल –
क्या हमें अधिकार है अपने मोह में किसी की आत्मा को इतना कष्ट देने का?
क्या कुछ किया जा सकता था, कि कष्ट कम हो?
क्या आराम से उन्हें विदा कर सकते थे?
जबाब नहीं पर मेरे पास।
क्यों???
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क्योंकि एक शंका भी साथ कुलबुलाती है, कहीं वो न हो जो मैंने बचपन में सुना था।
मेरे पडोस में एक परिवार रहता था, जिनका एक बेटा बस नाम से ही सूरज था, बददिमाग और उसकी शादी के बाद और भी जोड़ी ऐसी ही बनी प्रिया से।
उन दोनों ने धीरे-धीरे फुसलाकर अपने माता-पिता( मिस्टर राम व सीता) से सारी जायदाद अपने नाम करवा ली। फिर पता नहीं, स्वस्थ दिखने वाले राम और सीता बिमार रहने लगे, सीता ने बिस्तर पकड़ा तो राम भी मन से भी अस्वस्थ्य हो गए और एक रात अपनी पत्नी सीता को रात दूध पीने के बाद नीली उल्टियाँ देख सब समझ गए, पर तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी, वो जा चुकी थी।
राम खाली हाथ मलते हुए चुपचाप घर से उसी रात निकल जाते है और दोनों बच्चे सूरज और उसकी पत्नी प्रिया बुढ़ापे और बीमारी तथा दिमाग खराब का बहाना कर समाज को बहला देते हैं।
माँ बताती है बेटे की शादी के पूर्व वो पडोसन सीता, माँ को अपने पोते की शादी के सपने सुनाया करती थी,,,,,!
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एक किस्सा और भी याद आता है मुझे,
तीन बेटों के पिता है वो।
अच्छे पढ़े-लिखे कमाऊ पूत।
अब रिटायर्ड जीवन जीते हुए दस साल हो गए, पत्नी भी चल बसी पिछले साल।
कोई नहीं जो पास में बैठे, बात करे, सुख-दुःख समझे।
उम्र भी हो गई है, यही सोचते-सोचते बिस्तर पर आ गए।
डॉक्टर कहते हैं- कोई बीमारी नहीं मिस्टर शर्मा आपको।
आप बिल्कुल ठीक हैं। बस खुश रहें।
“क्या बताऊँ डाक्टर को कि खुशी तो मिसेज शर्मा के साथ गई, सो लौटकर नहीं आई। बच्चों को क्या दोष दूँ उनका अपना जीवन है।
पर मैं अब किसलिए जिऊँ, कोई तो बताए।”
मन में सोचते हुए कहा डाक्टर से-
“इस बिस्तर पर पड़ा सभी के बोझ हो गया हूँ, क्या डाक्टर आप मुझे कोई ऐसी दवाई दे सकते हैं, कि मैं शान्ति से मर सकूँ।” कहते हुए फफककर रो पडे मिस्टर शर्मा।
पहली बार उनके बेटे के चेहरे पर अफसोस के भाव आए।
अपनी गल्ती समझ में आई और आज एक साल बाद जब उनके घर पहुँची तो देखा मिस्टर शर्मा हॉल में बच्चों के साथ लूडो खेल रहे थे, उनके चेहरे पर खिली निर्मल हँसी ने मुझे भी सोचने पर मजबूर किया कि कहीं बड़ों की बीमारियों का बड़ा कारण हम ही तो नहीं।
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इंदु झुनझुनवाला
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